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साध्वी मोक्षरत्ना श्री
करना चाहिए, स्नान नहीं करना चाहिए, परीषहों को सहन करना चाहिए तथा उबटन का प्रयोग नहीं करना चाहिए। वर्षाऋतु में साधु को विहार नहीं करना चाहिए, एक स्थान पर ही रहना चाहिए, केशलुंचन एवं पयूर्षणपर्व जैसे आवश्यक कृत्य करने चाहिए। शरदकाल में साधुओं को विहार नहीं करना चाहिए, नई वस्तुओं का ग्रहण नहीं करना चाहिए तथा आहार-पानी का यथासंभव त्याग करना चाहिए, इत्यादि। श्वेताम्बर-परम्परा के आगमग्रन्थ दशवैकालिकसूत्र में भी हमें साधुओं की ऋतुचर्या का संक्षिप्त उल्लेख मिलता है, यथा सुसमाहित निर्ग्रन्थ ग्रीष्मऋतु में सूर्य की आतापना लेते हैं, हेमन्त ऋतु में खुले बदन रहते हैं और वर्षाकाल में प्रतिसंलीन होते हैं।
साधु संयम के सम्यक् परिपालन हेतु एक स्थान पर अधिक से अधिक कितने समय तक रह सकता है तथा पुनः उस स्थान पर कितने समय पश्चात् आए-इस सम्बन्ध में भी वर्धमानसूरि ने अपना मंतव्य प्रकट किया है। वर्धमानसूरि के अनुसार ०° मुनि को एक मास; एक ऋतु, अर्थात् दो मास; दो ऋतु; अर्थात् चार मास; तीन ऋतु, अर्थात्, छः मास या वर्ष के अन्त में अवश्य विहार करना चाहिए। सामान्यतः चातुर्मास को छोड़कर मुनि को एक मास तथा साध्वियों को दो मास तक ही एक स्थान पर रहना कल्प्य है। दशवैकालिक की विविक्तचर्या नामक दूसरी चूलिका में भी इसका उल्लेख है कि जिस गाँव में मुनि काल के उत्कृष्ट प्रमाण तक रह चुका हो, अर्थात् वर्षाकाल में चातुर्मास एवं शेषकाल में एक मास रह चुका हो, वहाँ दो वर्ष, अर्थात् दो चातुर्मास एवं दो मास का अन्तर किए बिना न रहे। इसका तात्पर्य यह है कि मुनि जहाँ एक मास रह चुका है, वहाँ दो मास अन्यत्र बिताए बिना नहीं आए। इसी प्रकार जहाँ चातुर्मास करे, वहाँ दो चातुर्मास अन्यत्र बिताए बिना पुनः चातुर्मास न करे। दिगम्बर-परम्परा में भी मुनि के लिए एक स्थान पर रूकने सम्बन्धी यही विधान होगा-ऐसा हम मान सकते हैं, क्योंकि दिगम्बर-परम्परा के ग्रन्थों में इस सम्बन्ध में कोई सूचना नहीं मिलती है। वैदिक-परम्परा के संन्यासी के लिए भी एक स्थान पर अधिकतम समय तक रूकने सम्बन्धी विधि-निषेधों का उल्लेख मिलता है। मिताक्षरा (याज्ञवल्क्य) द्वारा उद्धृत शंख के वचनानुसार०२ संन्यासी वर्षाऋतु में एक स्थान पर केवल दो मास
दशवैकालिकसूत्र, सं.-मुनिनथमल, सूत्र-३/१३, जैन विश्वभारती, लाडनूं, द्वितीय संस्करण १६७४. ६० आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय-इकतीसवाँ, पृ.-१२६, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण
१६२२. ६"दशवैकालिकसूत्र, सं.-मुनि नथमल, द्वितीय चूलिका सूत्र-११, जैन विश्वभारती, लाडनूं, द्वितीय संस्करण १६७४.
धर्मशास्त्र का इतिहास (प्रथम भाग), पांडुरंग वामण काणे, अध्याय-२८, पृ.-४६१, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ, तृतीय संस्करण १८६०.
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