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वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
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तक रूक सकता है। इसी प्रकार कण्व के अनुसार संन्यासी एक रात्रि गाँव में या पाँच दिन नगर में (वर्षा ऋतु को छोड़कर) रह सकता है। आषाढ़ पूर्णिमा से लेकर चार या दो महीनों तक वर्षा ऋतु में एक स्थान पर रह सकता है, किन्तु संन्यासी यदि चाहे तो गंगा के तट पर सदा रह सकता है। बौद्ध परम्परा में भी भिक्षुओं को चातुर्मास के अतिरिक्त शेष आठ मास विहार करने का विधान है, किन्तु भिक्षु एक स्थान पर उत्कृष्ट कितने समय तक रह सकता है - इस सम्बन्ध में बौद्ध परम्परा में हमें कोई सूचना प्राप्त नहीं होती है ।
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मुनि को सामान्यतः किन क्षेत्रों में विहार करना चाहिए एवं किन-किन क्षेत्रों में विहार नहीं करना चाहिए, इस विषय की चर्चा करते हुए वर्धमानसूरि ने विहार के योग्य आर्यदेशों एवं विहार के अयोग्य अनार्यदेशों का नामोल्लेख किया है। श्वेताम्बर-परम्परा के बृहत्कल्पसूत्र ६०५ की टीका में तथा प्रवचनसारोद्धार में भी इन नामों की चर्चा मिलती है। दिगम्बर - परम्परा में विहार के योग्य क्षेत्र की चर्चा करते हुए मात्र इतना ही कहा गया है कि संयमी को प्रासुकक्षेत्र और सुलभवृत्ति, अर्थात् जहाँ शुद्ध आहार - जल आदि सहजरूप में उपलब्ध हो, वह क्षेत्र स्वयं तथा अन्य मुनियों के संलेखना के योग्य समझना चाहिए, अर्थात् ऐसे क्षेत्र में विचरण करना चाहिए। १०६ आचारदिनकर की भाँति दिगम्बर- परम्परा के ग्रन्थों में हमें योग्यायोग्य आर्य-अनार्य देशों के नामोल्लेख नहीं मिलते हैं। बौद्ध परम्परा के ग्रन्थों में भी हमें विहार के योग्यायोग्य देशों के नामोल्लेख प्राप्त नहीं होते हैं।
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इसी प्रकार आचारदिनकर में विहार के सन्दर्भ में ज्योतिष सम्बन्धी विषय की भी विस्तृत चर्चा मिलती है । यद्यपि गणिविज्जा कल्याणकलिका आदि प्राचीन ग्रन्थों में भी विहार के संदर्भ में ज्योतिष से सम्बन्धित आंशिक चर्चा मिलती है, किन्तु वे उल्लेख बहुत ही संक्षिप्त हैं । दिगम्बर, बौद्ध आदि परम्परा में हमें इस प्रकार की चर्चा देखने को नहीं मिली।
६०३ धर्मशास्त्र का इतिहास, पांडुरंग वामन काणे (प्रथम भाग ), अध्याय- २८, पृ. ४६१, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ, तृतीय संस्करण १८६०.
६०४ 'आचारदिनकर, वर्षमानसूरिकृत, उदय एकतीसवाँ, पृ. १३०, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण
१६२२.
६०५. 'बृहत्कल्पसूत्र, मधुकरमुनि, टीका पृ. १५४, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, प्रथम संस्करण १६२२.
मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन, डॉ. फूलचन्द्र जैन, अध्याय- ४, पृ. २८६, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, प्रथम संस्करण १६८७.
६०० गणिविज्जा, अनु. - डॉ. सुभाष कोठारी, पृ. ३ से ५, आगम अहिंसा समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर, प्रथम संस्करण १६६४.
६० कल्याणकलिका, कल्याणविजय विरचित, पृ. - ४४४ से ४४६, श्री क. वि. शास्त्र संग्रह समिति, जालोर, द्वितीय संस्करण १६८७.
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