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वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
301 शरदकाल की चर्या भी वर्षाऋतु की चर्या के सदृश ही है। इसमें इतना विशेष है कि मुनि को इस ऋतु में नई वस्तुएँ नहीं लेनी चाहिए तथा आहार-पानी का यथासंभव त्याग करना चाहिए। तदनन्तर मूलग्रन्थ में व्याख्यान की विधि बताई गई है। व्याख्यान विधि के अन्तर्गत ही यह बताया गया है कि प्रवचन प्रदाता को द्वादश अंगआगमों तथा, उत्कालिक और कालिक अंगबाह्य आगमों की व्याख्या योगोद्ववहनपूर्वक ही करना चाहिए। साथ ही त्रिषष्टिशलाका पुरुषों के संपूर्ण चारित्र का व्याख्यान करना चाहिए। धर्मसाधना हेतु प्रेरणा देते समय मुनि को उनसे सम्बन्धित कथानकों का विस्तारपूर्वक विवेचन करना चाहिए तथा द्वादश भावनाओं की व्याख्या करनी चाहिए........ इत्यादि। तदनन्तर अध्ययन सम्बन्धी विधि-निषेधों का उल्लेख किया गया है। स्थानाभाव के कारण इसकी विस्तृत चर्चा हम यहाँ नहीं कर रहे हैं, इस सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी हेतु मेरे द्वारा अनुदित आचारदिनकर के द्वितीय भाग के एकतीसवें उदय को देखा जा सकता है। तुलनात्मक विवेचन
श्वेताम्बर एवं दिगम्बर-परम्परा में ऐसा कोई ग्रन्थ हमारे देखने में नहीं आया, जिसमें आचारदिनकर की भाँति साधु की ऋतुचर्या का उल्लेख हुआ हो। यद्यपि आचारदिनकर में वर्णित इन विषयों की चर्चा हमें जैन-परम्परा के अनेक ग्रन्थों में देखने को मिलती है, जिसका तुलनात्मक अध्ययन निम्न रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है।
वर्धमानसूरि के अनुसार'८८ हेमन्तऋतु में साधुओं को प्रायः वस्त्रों का त्याग कर देना चाहिए। इस ऋतु में उन्हें निद्रा एवं आहार-दोनों अल्पमात्रा में लेना चाहिए। तेल का मर्दन नहीं करना चाहिए तथा बालों का गुच्छ भी नहीं रखना चाहिए, शीत के निवारणार्थ रूई की शय्या पर शयन और अग्नि का प्रयोग नहीं करना चाहिए। जिनसे रस उत्पन्न हो-ऐसे गर्म, तीक्ष्ण, खट्टे एवं मधुर आहार का सेवन नहीं करना चाहिए। शिशिरऋतु में मुनि को अधिक मात्रा में जल नहीं पीना चाहिए तथा श्लेष्म नहीं निगलना चाहिए। बसंत ऋतु में मुनि को भूषा का सर्वथा त्याग करना चाहिए। नीरस आहार का सेवन करना चाहिए तथा अच्छे वस्त्र धारण नहीं करने चाहिए। मुनि को इस ऋतु में ब्रह्मचर्यव्रत के प्रति विशेष रूप से सजग रहना चाहिए। अस्वाध्याय के निवारणार्थ कल्पतर्पण करना चाहिए। ग्रीष्मऋतु में मुनियों को कायोत्सर्ग में रत रहना चाहिए तथा आतापना लेनी चाहिए। शीतल जल, शीतल स्थान एवं पान (शीतल पेय पदार्थों) का सेवन नहीं
आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय-इकतीसवाँ, पृ.-१२६/१३५, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण
१६२२.
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