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वर्षमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन 293 परिणाम होते हैं, उसका भी उसमें उल्लेख है। जैसे ८०-दंड में एक पर्व हो, तो वह शुभ होता है; दंड में दो पर्व हों, तो वह कलहकारी होता है, तीन पर्व हो तो वह लाभदायक होता है, चार पर्व हो तो मरणान्तिक कष्ट देने वाला होता हैइत्यादि। संक्षेप में उसमें समसंख्या वाले पर्व से युक्त दण्ड को अशुभ माना गया है तथा विषम संख्या वाले पर्व से युक्त दंड को शुभ माना गया है, जबकि आचारदिनकर में हमें इस प्रकार की चर्चा देखने को नहीं मिलती। दिगम्बर-परम्परा के ग्रन्थों में भी श्रमण के उपकरणों की चर्चा मिलती है, किन्तु उसमे दण्ड का उल्लेख नहीं है। मूलाचार के अनुसार श्रमण की उपधि चार प्रकार की होती है- (१) ज्ञानोपधि (२) संयमोपधि (३) शौचोपधि एवं (४) अन्य उपधि। शास्त्र ज्ञानोपधि हैं, पिच्छी संयमोपधि है, कमण्डलु शौचोपधि है, अन्य उपधि में चटाई-पाट आदि आते हैं, जो अल्पकाल के लिए गृहीत किए जाते हैं। दिगम्बर-परम्परा के श्रमणों को सामान्यतया पिच्छी, कमण्डलु एवं शास्त्र इन तीन उपधि के ही रखने का विधान किया गया है। वैदिक-परम्परा में संन्यासियों को अपने पास कुछ भी एकत्रित नहीं करने का निर्देश देते हुए कहा गया है कि वे मात्र जीर्ण परिधान, जलपात्र एवं भिक्षापात्र रख सकते हैं, किन्तु कुछ विद्वानों के अनुसार वे जल छानने का वस्त्र, पादुका, आसन, सर्दी से बचने के लिए कथरी तथा कमण्डलु आदि भी रख सकते हैं। पर
इस प्रकार तीनों ही परम्पराओं मे संयम के निर्वाह हेतु सहयोगी उपकरणों की चर्चा मिलती है।
संयम हेतु उपयोगी उपकरणों की चर्चा करने के बाद वर्धमानसूरि ने मुनि की दिन-रात की चर्याविधि का वर्णन किया है। यद्यपि यतिदिनचर्या एवं सामाचारी में वर्णित मुनि की अहोरात्रि की चर्या प्रायः समान ही है, किन्तु कहीं-कहीं गच्छ-परम्परा के कारण विषमता भी दृष्टिगत होती है। जैसे-वर्धमानसूरि के अनुसार ८३ साधु को रात्रि के अन्तिम प्रहर में परमेष्ठीमंत्र का स्मरण करते हुए संस्तारक का त्याग करना चाहिए और उसके बाद विधिपूर्वक मूत्र का त्याग
यतिदिनचर्या, सं.-जिनेन्द्रसूरी, पृ.-६३, श्री हर्षपुष्पामृत जैनग्रन्थमाला, जामनगर, प्रथम संस्करण १६६७. "मूलाचार, सं.-डॉ. फूलचन्द्र जैन, एवं डॉ. श्रीमती मुन्नी जैन, सूत्र सं.-१/१४, भारतवर्षीय अनेकांत विद्धत्
परिषद्, प्रथम संस्करण १६६६. ५८२धर्मशास्त्र का इतिहास (प्रथम भाग) पांडुरंग वामण काणे, अध्याय-२८, पृ.-४१३, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान,
लखनऊ, तृतीय संस्करण १६८०. आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय- तीसवाँ, पृ.-१२७, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२.
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