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वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
इस प्रकार श्वेताम्बर - परम्परा के ग्रन्थों में वर्णित मुनि की अहोरात्रिचर्याविधि में कहीं-कहीं परस्पर समानता दिखाई देती है, तो कहीं कुछ भिन्नता भी दृष्टिगोचर होती है।
उपसंहार
आचारदिनकर में वर्णित मुनि की दिनचर्या सम्बन्धी विधि-विधानों की क्या उपयोगिता है, इस सम्बन्ध में जब हम विचार करते हैं, तो हमारे समक्ष कई महत्वपूर्ण तथ्य उभरकर सामने आते हैं। साधुजीवन में प्रवेश करने के बाद संयमी का यही लक्ष्य होता है कि वह सूत्र में कहे गए अनुसार चारित्र का पालन करके मोक्ष को प्राप्त करे, किन्तु जब तक संयमी को यह पता नहीं होगा कि संयमजीवन में साधु को अपनी दिनचर्या का पालन कैसे और किस क्रम से करना चाहिए, तो वह अपनी क्रिया सम्यक् प्रकार से नहीं कर पाएगा, क्योंकि ज्ञान के अभाव में मुनि अपनी दिनचर्या जैसी-तैसी भलें ही पूरी कर ले, किन्तु व्यवस्थित क्रम के अभाव में उसकी वह क्रिया सार्थक नहीं होती है। जैसा कि हरिभद्रसूरि ने भी शास्त्रोक्त आचरण से विपरीत आचरण का परिणाम बताते हुए कहा है '
स्तोकोप्यत्रायोगो योगेन नियमेन विपाकदारुणो भवति ।
पाक क्रियागतो यथा ज्ञातमिदं सुप्रसिद्धं तु । ।
अर्थात् शास्त्र में कहे गए आचरण का अल्पमात्र अभाव, अथवा विपरीत आचरण का फल निश्चय ही दुःखदायी होता है । जैसे कि भोजन में नमक का अभाव या शक्कर के स्थान पर नमक का प्रक्षेप भोजन को बिगाड़ देता है, ठीक उसी प्रकार शास्त्र में कही गई विधि से विपरीत विधि का आचरण करने पर मुनि कर्मनिर्जरा के स्थान पर कर्म का बन्ध करने लगता है, इसलिए मुनिजीवन की दिनचर्या का सम्यक् रूप से पालन हो सके, इसके लिए मुनि को अहोरात्रिचर्या जानना आवश्यक है। इसके माध्यम से ही वह गृहीत व्रतों का पालन करते हुए संयम-जीवन का निर्वाह कर सकता है, जैसे कि स्वयं वर्धमानसूरि ने भी इस ग्रन्थ के उपसंहार में कहा है५६६.
व्रतिनीव्रतिनोर्यश्च दिनरात्रिस्थिति क्रमः ।
सः संयमस्स निर्वाह हठौपायापघातनः । ।
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" विंशतिविंशिका, सं. - धर्मरक्षित विजय, विंशिका - १२, पृ. ६३, मुद्रक: ६८७/१, छीपापोल, कालूपुर, अहमदाबाद. ५६६ 'आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, पृ. ३६२, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२.
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