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वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
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अहोरात्रिचर्या-विधि
वर्धमानसूरि ने इस प्रकरण में साधु और साध्वियों की दिनरात की चर्या का उल्लेख करते हुए सर्वप्रथम संयम में सहायक धर्मोपकरणों की चर्चा की है। इसके साथ ही यह भी कहा है कि पुस्तक, स्याही की दवात, लेखनी, पट्टिका (स्लेट), पुस्तकबन्ध मोरपिच्छी और प्रमार्जनी आदि ज्ञानोपकरण हैं। ज्ञान के साधनरूप इन ज्ञानोपकरणों एवं साधुओं के आगमविहित संयमोपकरणों से संयतियों के निष्परिग्रहव्रत का उपघात नहीं होता है। संयमोपकरणों की चर्चा करते हुए उनकी क्या उपयोगिता है तथा उनका परिमाण कितना होना चाहिए? इसका भी मूलग्रन्थ में उल्लेख किया गया है। तदनन्तर आचारदिनकर में साधु-साध्वी की दिनचर्या का उल्लेख किया गया है। साधु और साध्वी रात्रि के अन्तिम प्रहर में परमेष्ठीमंत्र के स्मरणपूर्वक उठकर यतनापूर्वक प्रस्रवणभूमि तक जाएं और लघुशंका का निवारण करे तथा पुनः संस्तारक के पास आकर गमनागमन में लगे दोषों की आलोचना करें। इस सब का विवेचन मूलग्रन्थ में विस्तारपूर्वक किया गया है। तदनन्तर कुःस्वप्न आदि के प्रायश्चित्त हेतु कायोत्सर्ग कर शय्या सम्बन्धी दोषों की आलोचना करें। तत्पश्चात् साधु-साध्वी रात्रि का एक मुहूर्त शेष रहने तक धीमे स्वर में स्वाध्याय आदि करें। तदनन्तर रात्रि-प्रतिक्रमण करें। तत्पश्चात् सूर्योदय होने पर गौतम गणधर स्तुतिपूर्वक अंग की, उपधि की एवं वसति की प्रतिलेखना करें। तदनन्तर स्वाध्याय, धर्माख्यान एवं साधु-साध्वी तथा श्रावक-श्राविकाओं को अध्ययन-अध्यापन आदि कार्य करें। तत्पश्चात् प्रथम प्रहर व्यतीत होने पर पोरसी की प्रतिलेखना करें। तत्पश्चात् साधु-साध्वी जिनचैत्य में जाकर देवदर्शन एवं चैत्यवंदन करें। तत्पश्चात् स्थण्डिल भूमि पर जाकर मलमूत्र का उत्सर्ग करें। फिर विधिपूर्वक उपाश्रय में आकर साधु-साध्वियों को गमनागमन में लगे दोषों की
आलोचना करनी चाहिए। तत्पश्चात् मूलग्रन्थ में प्रत्याख्यान पारणविधि एवं भिक्षाचर्या सम्बन्धी विधि-निषेधों का विस्तारपूर्वक उल्लेख किया गया है। तदनन्तर भिक्षाचर्या करते समय गमनागमन में लगे दोषों की आलोचना करने के पश्चात् गोचरचर्या के प्रतिक्रमण हेतु कायोत्सर्ग करें। तत्पश्चात् आहार करने से पूर्व साधु-साध्वी निर्दिष्ट गाथाओं का स्मरण करके आहार ग्रहण करें। आहार करने के पश्चात् पात्र-प्रक्षालन आदि किस प्रकार से करें, इसका भी मूलग्रन्थ में उल्लेख हुआ है। तत्पश्चात् ईर्यापथिकी के दोषों की आलोचना कर शक्रस्तव का पाठ करें। तदनन्तर मुनिजन गुरु एवं अन्य साधुओं की वैयावृत्त्य करें तथा उपकरणों को व्यवस्थित करने का कार्य करें। तत्पश्चात् चौथे प्रहर में मुनि प्रतिलेखना एवं स्वाध्याय करे। कदाच बाल, ग्लान आदि हेतु पुनः भिक्षाटन करना पड़े, तो उसके लिए भी विधि-निषेध निर्दिष्ट किए गए हैं। तत्पश्चात् चतुर्थ प्रहर व्यतीत होने पर
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