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साध्वी मोक्षरला श्री
बातों का ध्यान रखना और भी आवश्यक है। धर्म में तो इनकी उपेक्षा करना उचित है ही नहीं। इन विधि-विधानों के कारण व्यक्ति अपने दायित्वों के प्रति पूर्ण रूप से सजग रहता है। साध्वी-समुदाय में प्रवर्तिनी का पद एक महत्वपूर्ण पद है। प्रवर्तिनी-पद पर स्थित साध्वी यदि योग्य हो और अपने दायित्वों के प्रति पूर्ण सजग हो, तो ही वह अपने आश्रित साध्वियों को सम्यक् ज्ञान प्रदान कर सकती है, इसलिए किसी योग्य साध्वी, जो कि सौंपे गए कार्य को भली-भाँति करने में सक्षम हो-उसे प्रवर्तिनी-पद पर नियुक्त किया जाना आवश्यक है।
प्रवर्तिनी-पद पर आरूढ़ होने के बाद उनके द्वारा कौन-कौन से कार्य करणीय हैं और कौन-कौन से अकरणीय हैं-इसका ज्ञान होना भी आवश्यक है। आचारदिनकर में इसका स्पष्ट रूप से निर्देश किया गया है, जिससे की वह करणीय कार्यों को आचरित कर सके और अकरणीय कार्यों का निषेध कर सके। इस प्रकार साध्वी-संघ की व्यवस्था हेतु यह संस्कार आवश्यक है।
__ महत्तरापदस्थापन-विधि महत्तरा-पदस्थापन-विधि का स्वरूप
महत्तरा-पदस्थापन-विधि का स्वरूप जानने से पहले यह जानना आवश्यक है कि महत्तरा किसे कहते हैं? महत्तरा शब्द का तात्पर्य है-प्रधान या मुखिया, अर्थात् जो साध्वी समुदाय में प्रधान हो, उसे महत्तरा कहते हैं। साध्वी को महत्तरा-पद पर किस विधि-विधान पूर्वक नियुक्त किया जाए- इसका इस विधि में वर्णन किया गया है। इस विधि में महत्तरा-पद के योग्य साध्वी के लक्षण, उनके द्वारा करणीय कार्यों आदि का विस्तृत विवेचन किया गया है। जैन-परम्परा में प्राचीनकाल से ही श्रमणीसंघ में इस पद की व्यवस्था रही है। इतिहास में याकिनी महत्तरा आदि के ऐसे अनेक उल्लेख मिलते हैं, जो यह सूचित करते हैं कि प्राचीन समय में भी साध्वियों को महत्तरा-पद से विभूषित किया जाता था। वर्धमानसूरि ने भी इसी परम्परा का अनुकरण करते हुए इसे संस्कार के रूप में विवेचित किया है। दिगम्बर-परम्परा में भी गणिनी (महत्तरा) पद की व्यवस्था देखने को मिलती है, उसे वहाँ साध्वियों का गणधर कहा जाता है। किन्तु इसकी क्या विधि है? इसका उल्लेख हमें दिगम्बर-परम्परा के ग्रन्थों में देखने को नहीं मिला। यद्यपि दिगम्बर-परम्परा में महत्तरा-पद के योग्य साध्वी के लक्षण तथा उनके कार्यों आदि का संक्षिप्त उल्लेख मिलता है, किन्तु स्वतन्त्र रूप से इनके कार्यों आदि की विस्तृत चर्चा हमें दिगम्बर-परम्परा के ग्रन्थों में भी देखने को नहीं मिलती है। वैदिक-परम्परा में हमें इस संस्कार के समान किसी अन्य संस्कार का उल्लेख देखने को नहीं मिला।
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