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वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
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निर्दिष्ट गणोपग्रहण क्रियाविधि की तुलना हम आचारदिनकर में वर्णित वाचनानुज्ञा या गणानुज्ञा से कर सकते है। वैदिक-परम्परा के ग्रन्थों में इस प्रकार का कोई संस्कार हमें देखने को नहीं मिला।
वर्धमानसूरि के अनुसार आचार्य या उपाध्याय की अनुपस्थिति में वाचना देने हेतु अन्य योग्य मुनि को अनुमति प्रदान करने के उद्देश्य से यह संस्कार किया जाता है। १८ आचार्य या उपाध्याय की अनुपस्थिति में निर्ग्रन्थ साधु-साध्वी वाचना अर्थात श्रृताध्ययन आदि कार्यों से वंचित न रह जाएं- इस प्रयोजन से यह संस्कार किया जाता है, क्योंकि मोक्षाभिलाषियों के लिए श्रुताध्ययन अत्यन्त अनिवार्य है, उसके अभाव में मोक्षार्थी अपने पथ से च्युत हो सकता है। अतः गच्छ के साधु-साध्वी समुदाय को आचार्य की अनुपस्थिति में भी वाचना मिलती रहे, अर्थात् उनका शास्त्राध्ययन होता रहे, इस दीर्घ दृष्टि से ही वाचनाचार्य की नियुक्ति की जाती है।
वर्धमानसूरि ने यह संस्कार किस माह, नक्षत्र आदि में करणीय है, इसका विस्तृत उल्लेख न करते हुए मात्र इतना ही उल्लेख किया है कि आचार्यपदयोग के आने पर शुभ दिन एवं शुभ लग्न में यह संस्कार करें, किन्तु मुनि को यह पद कितनी दीक्षापर्याय के पश्चात् दिया जाए- इस सम्बन्ध में आचारदिनकर में कोई उल्लेख नहीं मिलता है। उसमें मात्र इस पद हेतु योग्य मुनि के लक्षण ही बताए गए हैं, जिसकी चर्चा आंशिक रूप से दिगम्बर-परम्रा में प्रचलित गुरुस्थानाभ्युपगमक्रिया में भी मिलती है। इस प्रकार दिगम्बर-परम्परा के ग्रन्थ आदिपुराण में वर्णित गुरुस्थानाभ्युपगम एवं गणोपग्रहण क्रिया का इस संस्कार में समावेश हो जाता है। सम्भवतः मुनि में इन योग्यताओं का प्रादुर्भाव होने पर ही उसे इस संस्कार से संस्कारित किया जाता होगा- ऐसा हम मान सकते है। संस्कार का कर्ता
संस्कार के कर्ता की दृष्टि से विचार करने पर ज्ञात होता है कि वर्धमानसूरि के अनुसार यह संस्कारविधि आचार्य द्वारा ही सम्पन्न करवाई जाती
५" आदिपुराण, अनु.-डॉ. पन्नालालजी जैन, पर्व- अडतीसवाँ, पृ.-२५५, भारतीय ज्ञानपीठ, सातवाँ संस्करण
२०००. "आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, पृ.-३६२, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे प्रथम संस्करण १६२२.
आदिपुराण, अनु.- डॉ. पन्नालालजी जैन, पर्व-अड़तीसवाँ, प्र.-२५४, भारतीय ज्ञानपीठ, सातवाँ संस्करण २०००.
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