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साध्वी मोक्षरत्ना श्री
या अनुशासनप्रिय नहीं है, वह किस प्रकार से अपने आश्रित शिष्यों को आगम का ज्ञान प्रदान कर सकेगा, अथवा उन्हें अनुशासित कर सकेगा।
किसी भी गच्छ की सुदृढ़ व्यवस्था उपाध्याय पर ही निर्भर करती है। योग्य एवं कुशल उपाध्याय ही संघ एवं गच्छ को उन्नति के चरम शिखर पर पहुँचा सकता है। अतः गच्छ एवं संघ की उन्नति हेतु यह संस्कार अत्यावश्यक है।
इस संस्कार की आवश्यकता विद्वानों ने इसलिए भी महसूस की होगी, कि संघ में कदाचित कोई आचार्य न हो, तो भी उसका नेतृत्व एक सफल एवं कुशल व्यक्ति के हाथ से हो, जिससे कि संघ में किसी प्रकार का वैर-विरोध उत्पन्न न हो।
इस प्रकार हम देखते हैं कि यह संस्कार जिनशासन की प्रभावना हेतु आवश्यक एवं उपयोगी है।
आचार्य-पदस्थापन विधि आचार्य-पदस्थापन-विधि का स्वरूप
आचार्य उन्हें कहते हैं, जो स्वयं आचार का पालन करते हैं तथा दूसरों से आचार का पालन करवाते है। आवश्यकनियुक्ति५३६ में आचार्य की परिभाषा देते हुए कहा गया है
पंचविहं आयारं आयरमाणा तहा पभासंता
आयारं दंसंता आयरिया तेण वुच्चंति
अर्थात् जो पाँच प्रकार के आचारों-ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार का अनुपालन स्वयं करते हैं, उनके पालन हेतु उपदेश देते हैं और दूसरों को आचार की क्रियाओं का सक्रिय प्रशिक्षण देते हैं, उन्हें आचार्य कहते है। दिगम्बर-परम्परा में भी आचार्य शब्द की व्याख्या अनेक प्रकार से की गई है। इस-परम्परा में साधुओं को शिक्षा-दीक्षादायक, उनके दोषनिवारक तथा अन्य अनेक गुण विशिष्ट संघनायक को आचार्य कहा गया है। मूलाचार'२० में कहा गया है कि जो सर्वकाल सम्बन्धी आचार को जानता हो, आचरण-योग्य का आचरण करता हो और अन्य साधुओं को आचरण कराता हो, उसे आचार्य कहते
५३६ भिक्षुआगम विषयकोश (भाग-१), सम्पादक- आचार्य महाप्रज्ञ, पृ.- ८६, जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनू,
प्रथम संस्करण १६६६. ५३७ देखेः जैनेन्द्र सिद्धांतकोश (भाग ), जिनेन्द्रवर्णी, प्र.-२४१, भारतीय ज्ञानपीठ, छठा संस्करण- १६६८.
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