________________
वर्षमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
263
उपाध्याय-पदस्थापन-विधि में मंत्रदान से पूर्व एक बार ही नंदी का पाठ बोला जाता है, जबकि सुबोधासामाचारी एवं सामाचारी में इस संस्कार की विधि में नंदीपाठ का कोई उल्लेख नहीं मिलता है।
वर्धमानसूरि के अनुसार नूतन उपाध्याय को चौकोर, अर्थात् चार द्वार वाला वर्द्धमानविद्यापट प्रदान किया जाता है। विधिमार्गप्रपा, सामाचारी एवं सुबोधासामाचारी में भी वर्धमानविद्या का उपदेश देते है, किन्तु वर्धमानविद्यापट्ट देने का उल्लेख नहीं मिलता है। विधिमार्गप्रपा में तो इस मंत्र को विधिपूर्वक सिद्ध करने का भी निर्देश दिया गया है, जबकि आचारदिनकर में हमें इस प्रकार का उल्लेख नहीं मिलता है।
वर्धमानसरि के अनुसार उपाध्याय-पदस्थापन में अक्षमष्टिवलय आदि नहीं होते हैं और गुरुवंदन भी नहीं करते है। कालग्रहण की विधि, बृहत्नदीपाठ और यव आदि का वपन भी नहीं किया जाता है। सामाचारी में भी प्रायः उपाध्यायपद-विधि के सम्बन्ध में यही निर्देश मिलते है। यथा ३५
"नवरं अक्खमुट्ठीओ गुरुवंदणं च न देई कालग्गहण सत्तस्सइय नंदिकड्ढणं च न करेइ ति"
इस प्रकार श्वेताम्बर-परम्परा के विधि-विधान से सम्बन्धित ग्रन्थों में वर्णित उपाध्याय-पद की विधि में आंशिक समानता और आंशिक भिन्नता दिखाई देती है। उपसंहारः
जिस गच्छ में अनेक साधु-साध्वियाँ हैं, जिनके अनेक संघाटक (संघाड़े) अलग-अलग विचरते हों, अथवा जिस गच्छ में नवदीक्षित बाल या तरुण साधु-साध्वियाँ हों, उनमें अनेक पदवीधरों का होना आवश्यक है, किन्तु कम से कम आचार्य एवं उपाध्याय-इन दो पदवीधरों का होना तो नितांत आवश्यक है। आचार्य गच्छ की संपूर्ण व्यवस्थाओं के उत्तरदायित्व का निर्वाह करता है, तो उपाध्याय शिष्यों को आगमों का अध्ययन करवाकर अपने कर्तव्य को पूर्ण करता है। उपाध्याय का मुख्य उत्तरदायित्व अध्ययन कराने का है, किन्तु इसके साथ ही शिष्यों के अध्ययन सम्बन्धी सभी प्रकार की देख-रेख करना तथा उन्हें अनुशासित रखना भी उपाध्याय का ही दायित्व है। यह कार्य वही कर सकता है, जो स्वयं गीतार्थ हो, समयज्ञ हो, अनुशासित हो, क्योंकि जो स्वयं आगमों का ज्ञाता नहीं है
५५५ सामाचारी तिलकाचार्य विरचित, प्रकरण-३६, प्र.-५०, सेठ डाझा भाई मोकमचन्द, अहमदाबाद, वि.सं.
१९६०.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org