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साध्वी मोक्षरत्ना श्री
वर्धमानसूरि के अनुसार यह विधि किस समय करें- इस सम्बन्ध में ज्योतिष सम्बन्धी निर्देश स्पष्ट रूप से दिए गए हैं, किन्तु मुनि को कितने वर्ष की दीक्षापर्याय के बाद में आचार्य-पद दिया जाना चाहिए-इस सम्बन्ध में हमें आचारदिनकर में कोई उल्लेख नहीं मिलता है, किन्तु श्वेताम्बर-परम्परा के आगमग्रन्थ व्यवहारसूत्र में आचार्य-पद देने हेतु जघन्य दीक्षा पर्याय का स्पष्ट रुप से निर्देश दिया गया है। जघन्य रुप से पाँच वर्ष के दीक्षापर्याय एवं आचार्य-पद के योग्य लक्षणों से युक्त होने पर ही मुनि को आचार्य-पद पर स्थापित किया जाता है। दिगम्बर-परम्परा में भी आचार्य-पद देने हेतु दीक्षापर्याय का हमें कोई उल्लेख नहीं मिलता है। उसमें हमें मात्र आचार्य-पद के योग्य मुनि के लक्षणों का ही उल्लेख मिलता है। संस्कार का कर्ता
वर्धमानसूरि के अनुसार यह संस्कार आचार्य द्वारा ही करवाया जाता है। वर्तमान में भी यह संस्कार आचार्य द्वारा ही करवाया जाता है तथा उनकी अनुपस्थिति में संघ द्वारा भी यह पद प्रदान किया जाता है। दिगम्बर-परम्परा में यह संस्कार आचार्य द्वारा करवाया जाता है।
आचारदिनकर में वर्धमानसूरि ने इसकी निम्न विधि प्रज्ञप्त की है - आचार्य-पदस्थापन-विधि
वर्धमानसूरि ने इस विधि के प्रारम्भ में आचार पद के योग्य लग्नादि की चर्चा की है। तत्पश्चात् इसमें आचार्य-पद के योग्यायोग्य मुनि के लक्षणों की विस्तृत चर्चा की गई है। तदनन्तर आचार्य-पदस्थापन से पूर्व श्रावकों द्वारा किए जाने वाले कार्यों, यथा-वेदिका बनाना, यववपन करना, महोत्सव करना आदि का उल्लेख किया गया है। तदनन्तर आचार्य-पदस्थापन की मूल विधि का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि लग्नदिवस की पूर्वसंध्या के समय गुरु आचार्य वेश को गणिविद्या द्वारा अभिमंत्रित कर रात्रि में एक स्थान पर रख दे तथा श्रावकगण उस वेश के समीप रात्रि जागरण करें। लग्न-दिन के आने पर भावी आचार्य ब्रह्ममुहूर्त में उठकर क्या-क्या क्रियाएँ करे- इसका भी मूलग्रन्थ में उल्लेख हुआ है। तत्पश्चात् यह बताया गया है कि आचार्य-पदस्थापन की क्रिया हेतु चैत्य में, या विशुद्ध पौषधशाला में, या तीर्थ में या मनोहर उद्यान में समवसरण की स्थापना कराए। तदनन्तर भावी आचार्य से समवसरण की तीन प्रदक्षिणा कराए। तत्पश्चात् आचार्य अक्षपोट्टलिका को प्रतिष्ठित एवं अभिमंत्रित करें। इसके बाद शिष्य द्वारा
५४१ व्यवहारसूत्र, मधुकरमुनि, सूत्र.-३/५, पृ.-३१२, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, प्रथम संस्करण १६६२.
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