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वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
दर्जा प्राप्त नहीं था, किन्तु महावीरस्वामी ने स्त्रियों को समाज और साधना के क्षेत्र में सम्मानपूर्ण स्थान प्रदान किया। उन्होंने श्रावकसंघ के साथ श्राविकासंघ की और मुनिसंघ के साथ साध्वीसंघ की भी स्थापना की। इस प्रकार उन्होंने स्त्रियों के महत्व को स्थापित किया । यद्यपि जैन - परम्परा में भी पुरुष की प्रधानता मानी गई है, किन्तु नारियाँ भी अपने को धर्म के क्षेत्र में समर्पित कर सकती हैं। स्त्री को कितने वर्ष की अवस्था में दीक्षा प्रदान करनी चाहिए, इसका उल्लेख हमें आचारदिनकर में नहीं मिलता है। श्वेताम्बर - परम्परा के अन्य ग्रन्थों में भी विशेष रूप से स्त्रियों की दीक्षा के विषय में आयु सम्बन्धी कोई नियम हमें नहीं मिलता है। सामान्यतया जैन आगमों में प्रव्रज्या योग्य जीवों को मुनिव्रत ग्रहण करने के लिए वय प्रमाण जघन्य से आठ वर्ष एवं उत्कृष्ट से अत्यन्त वृद्ध न हो, तब तक का कहा है।५५७ निशीथचूर्णि५८ में भी कहा गया है कि “आदेसेण वा गब्मट्ठमस्स दिक्खत्ति", अर्थात् गर्भ के नौ मास सहित आठ वर्षीय बालक-बालिका को दीक्षा दी जा सकती है। दिगम्बर - परम्परा में भी सामान्यतः स्त्रीदीक्षा की वय के सम्बन्ध में यही अवधारणा होगी - ऐसा हम मान सकते है । बौद्ध परम्परा में भिक्खुत्ति पाचित्तिय नियम के अनुसार १२ वर्ष से कम की विवाहित शिक्षमाणा तथा २० वर्ष से कम की अविवाहिता शिक्षमाणा को उपसम्पदा देना निषिद्ध था, अर्थात् इससे कम उम्र में वह भिक्षुणी नहीं बन सकती है- इस प्रकार बौद्ध - परम्परा में भी दीक्षा प्रदान करते समय आयु का ध्यान रखा जाता है।
संस्कार का कर्त्ता -
५५६
वर्धमानसूरि के अनुसार यह संस्कार स्थविरमुनि या आचार्य द्वारा किया जाता है, किन्तु वेशदान अन्य साध्वी द्वारा किया जाता है। ' दिगम्बर- परम्परा में भी यह संस्कार आचार्य द्वारा ही किया जाता है।
आचारदिनकर में वर्धमानसूरि ने इसकी निम्न विधि प्रस्तुत की है
साध्वी को दीक्षा प्रदान करने की विधि
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इस विधि का प्रतिपादन करते हुए वर्धमानसूरि ने सर्वप्रथम दीक्षा ग्रहण करने के अयोग्य बीस प्रकार की स्त्रियों का उल्लेख किया है । तदनन्तर यह
५५७ पंचवस्तु, अनु.- आचार्य राजशेखरसूरीश्वरजी, प्रकरण- १, पृ. ३०, अरिहंत आराधक ट्रस्ट, बॉम्बे, द्वितीय संस्करण.
५५६ प्रवचनसारोद्धार, अनु. - हेमप्रभाश्रीजी, द्वार - १०७, पृ. ४३३, प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर, प्रथम संस्करण १६६६.
५५ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय-सत्ताईसवाँ, पृ. ११८, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण
१६२२.
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