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वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
रूप से चलाने के लिए एवं संघ की प्रतिष्ठा तथा सुरक्षा के लिए प्रवेश सम्बन्धी कुछ नियम थे। जैन - परम्परा के अनुसार बीस प्रकार के दोषों से युक्त स्त्रियों को दीक्षा के अयोग्य माना जाता था । स्थानांगटीका, ,५६१ प्रवचनसारोद्वार" -५६२ आदि में इन दोषों का वर्णन मिलता है, वर्धमानसूरि ने भी आचारदिनकर में इन्हीं दोषों का उल्लेख किया है। बौद्ध परम्परा में भी भिक्षुणीसंघ में प्रवेश सम्बन्धी अयोग्यताओं का उल्लेख किया है। बौद्ध परम्परा में भी भिक्षुणीसंघ में प्रवेश सम्बन्धी अयोग्यताओं का उल्लेख मिलता है । ६३ वहाँ शारीरिक एवं मानसिक दृष्टि से विकृ त, रोगिणी एवं ऋणग्रस्त नारी को दीक्षा के अयोग्य माना जाता था।
वर्धमानसूरि के अनुसार स्त्री को दीक्षाग्रहण से पूर्व अपने संरक्षकों की अनुमति लेना अनिवार्य था। दिगम्बर एवं बौद्ध - परम्परा में भी स्त्री को दीक्षा प्रदान करते समय इस बात का ध्यान रखा जाता था। बिना अनुमति के संघ में प्रवेश देने से कटुता बढ़ती थी, अतः इस विवाद से बचने के लिए स्त्री को दीक्षा ग्रहण करने से पूर्व उसके संरक्षकों की अनुमति लेना आवश्यक माना जाता था।
जैन एवं बौद्ध परम्परा में स्त्री को दीक्षा ग्रहण करने से पूर्व कुछ नियमों को सीखना आवश्यक था। जैन परम्परा में स्त्री को दीक्षा से पूर्व क्षुल्लिका के रूप में उन नियमों का प्रशिक्षण दिया जाता था। इसी प्रकार बौद्ध भिक्षुणीसंघ में भी नारी को श्रामणेरी के रूप में दस शिक्षापदों तथा शिक्षमाणा के रूप में कम से कम दो वर्ष तक षड्नियमों की जानकारी प्राप्त करना होती थी, तदुपरान्त उसकी उपसम्पदा होती थी।१६४ जैन - परम्परा के सामायिकचारित्र एवं छेदोपस्थापना चारित्र के समान ही बौद्ध परम्परा में भी दीक्षा और उपसम्पदा की व्यवस्था है।
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स्त्रीदीक्षा सम्बन्धी उपर्युक्त बातों में जैन- परम्परा एवं बौद्ध परम्परा की विचारधाराओं में तो समानता दिखाई देती है, किन्तु उनकी दीक्षा - विधि आदि में कुछ भिन्नता भी दृष्टिगत होती है। बौद्ध भिक्षुणीसंघ में उपसम्पदा प्राप्त करने के लिए शिक्षमाणा को लम्बी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता था । उस हेतु भिक्षु और भिक्षुणी- दोनों संघों की सहमति अनिवार्य थी । सर्वप्रथम भिक्षुणीसंघ में तत्पश्चात्
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५६१.
'स्थानांगसूत्र, सम्पादक- मुनि श्री कन्हैयालालजी, सूत्र -३/२०२, टीका पृ. १५४ से १५५, आगम अनुयोग प्रकाशन, सांडेराव, राजस्थान.
५६२ प्रवचनसारोद्धार, अनु. - हेमप्रभाश्रीजी, द्वार - १०८, पृ. ४३७, प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर, प्रथम संस्करण :
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१६६६.
५६ जैन और बौद्ध भिक्षुणी संघ, डॉ. अरूणप्रतापसिंह, अध्याय- १, पृ. २०, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, प्रथम संस्करण १६८३.
५६४ जैन और बौद्ध भिक्षुणी संघ, डॉ. अरूणप्रतापसिंह, अध्याय- १, पृ. ३०, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, प्रथम संस्करण १६८३.
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