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वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
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के गर्भिणी स्त्री को दीक्षा प्रदान कर दे और समय-प्रसार होने पर गर्भ के लक्षण प्रकट होने लगे, तो लोग उसे तो व्यभिचारिणी कहेंगे ही, साथ ही साथ जिनशासन की भी आलोचना करेंगे कि जैन साधु-साध्वी चरित्रहीन होते है; आदि। दीक्षा के समय इन दोषों का परिहार करने के साथ-साथ दीक्षार्थी के स्वजनों की अनुज्ञा प्राप्त करना भी आवश्यक है।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यह नियम अत्यन्त उपयोगी है। वर्तमान में हम देखते हैं कि कितने ही साधु-साध्वी माता-पिता या पति की अनुज्ञा के बिना ही स्त्री को दीक्षा प्रदान कर देते हैं, जिसके परिणामस्वरूप लोगों में धर्म के प्रति आस्था कम होती जाती है और लोग धर्म से विमुख होते जाते हैं; अतः वर्धमानसूरि ने स्त्रियों को दीक्षा प्रदान करने हेतु जिन नियमों की चर्चा की है, वे अति आवश्यक हैं।
प्रवर्तिनी-पदस्थापन-विधि प्रवर्तिनी-पदस्थापन-विधि का स्वरूप
साध्वी-समुदाय का प्रवर्तन करने वाली साध्वी को प्रवर्तिनी कहते हैं। इनका मुख्य कार्य साध्वियों को वाचना प्रदान करने का होता है। जिस प्रकार मुनिसंघ में वाचनाचार्य का पद होता है, ठीक उसी प्रकार साध्वी-समुदाय में प्रवर्तिनी का पद होता है। यद्यपि वाचनाचार्य की अपेक्षा प्रवर्तिनी के अधिकार सीमित होते हैं, किन्तु दोनों का मुख्य कार्य तो उनके आश्रित शिष्य एवं शिष्याओं को वाचना देने का ही होता है। वाचनाचार्य-पद प्रदान करने की विधि का उल्लेख तो पूर्व में किया जा चुका है, यहाँ मात्र प्रवर्तिनी पद प्रदान करने की विधि का ही उल्लेख किया जा रहा है। किन-किन गुणों से युक्त साध्वी इस पद हेतु योग्य होती है, प्रवर्तिनी-पद पर आरूढ़ होने के बाद उसके द्वारा कौन-कौन से कार्य करणीय हैं तथा कौन-कौन से कार्य अकरणीय हैं-इन सबका विस्तृत विवेचन इस विधि में किया गया है। श्वेताम्बर-परम्परा में विधिमार्गप्रपा को छोडकर अन्यत्र कहीं भी इस विधि का उल्लेख हमें स्वतंत्र रूप से देखने को नहीं मिला। “विधिमार्गप्रपा" में भी ग्रन्थकार ने इस विधि का विस्तृत विवेचन नहीं करते हुए मात्र इतना ही निर्देश दिया है५६७
“सा य पवत्तिणीपयाभिलावेण वायणायरियपयट्ठवणातुल्ला, मंतो सो चेव, नवरं खंधकरणी लग्गवेलाए दिज्जइ। सेसं सव्वं निसिज्जाइ तहेवा"
५६°विधिमार्गप्रपा, जिनप्रभसूरिकृत, पृ.-७१, प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर, प्रथम संस्करण २०००.
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