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वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
चाहिए, इस मंत्र की क्या महिमा है- इन सबका उल्लेख हमें आचारदिनकर में नहीं मिलता है, जबकि विधिमार्गप्रपा में इन सब विषयों का उल्लेख हमें मिलता है।
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निर्वाणकलिका में आचार्य पद के समय मण्डप, वेदिका एवं मण्डल आलेखन करने का भी निर्देश दिया गया है, जबकि विधि-विधान सम्बन्धी अन्य ग्रन्थों में इस प्रकार का उल्लेख देखने को नहीं मिला ।
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इस प्रकार हम देखते हैं कि श्वेताम्बर - परम्परा के ग्रन्थों में वर्णित आचार्य - पदस्थापन की विधियों में कहीं समानता मिलती है तो कहीं असमानता भी दिखाई देती है। दिगम्बर- परम्परा के हुम्बुज श्रमणभक्ति संग्रह ' में आचार्य - पदस्थापना की जो विधि दी गई है, वह श्वेताम्बर - परम्परा के ग्रन्थों में वर्णित आचार्य-पदस्थापन की विधि से भिन्न है । दिगम्बर- परम्परा में आचार्य - पददाता सुमुहूर्त में शक्ति के अनुसार शांतिक कर गणधर वलय की पूजा करता है, तत्पश्चात् उपाध्याय - पद की भाँति श्रीखंड आदि के छींटे देकर विधिपूर्वक संस्थापित किए गए पाट पर आचार्य पद के योग्य मुनि को बैठाते हैं। तदनन्तर सिद्ध, आचार्य का पाठ कर आचार्य मंत्रपूर्वक पंचामृत कलश से भावी आचार्य के पैरों को अभिसिंचित करे। तत्पश्चात् पंडिताचार्य निर्वेद सौष्ठव इत्यादि महर्षिस्तवन का पाठ कर भावी आचार्य के दोनों पैरों को आगे लेकर गुणों का आरोपण करते है । तदनन्तर मंत्रपूर्वक आहूवान आदि कर भावी आचार्य के दोनों पैरों पर कपूरयुक्त चंदन का तिलक करे। इसके बाद शांति, समाधि, गुरु भक्ति आदि का क्रम चलता है। श्वेताम्बर - पराम्परा की भाँति हमें वहाँ नंदीक्रिया, कालग्रहण, स्वाध्याय प्रस्थापन, गुरु द्वारा नूतन आचार्य को वन्दन करना, पूर्वाचार्य द्वारा नूतन आचार्यादि को उपदेश देना आदि अनेक क्रियाओं का उल्लेख नहीं मिलता है, जिससे यह परिलक्षित होता है कि इन दोनों ही परम्पराओं के ग्रन्थों में वर्णित विधि प्रायः एक-दूसरे से एकदम भिन्न है, किन्तु इन सब विधियों का ध्येय आचार्य - पद के योग्यमुनि को अनुयोग की अनुज्ञा प्रदान कर आचार्य - पद पर स्थापित करना ही है।
उपसंहार
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मानव-जीवन में आचार का बहुत महत्व है। आचार के बिना व्यक्ति का जीवन मात्र औपचारिकताओं से ही भरा होता है, अतः जीवन को सही अर्थों में
५४४ निर्वाणकलिका, पादलिप्ताचार्यकृत प्रकरण-४, पृ. ७ से ८, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण :
१६८२.
हुम्बुज श्रमण भक्तिसंग्रह, पृ. ४६६ से ४५०, श्रीसंतकुमार खण्डाका, खण्डाका जैन ज्वैलर्स, हल्दियों का रास्ता, जयपुर.
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