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साध्वी मोक्षरत्ना श्री
प्रतिमाओं के वहन करने योग्य बताया है, जबकि हरिभद्रसूरि एवं दशाश्रुतस्कन्ध की टीका में प्रथम तीन संघयणों से युक्त मुनि को इन प्रतिमाओं के वहन करने योग्य बताया गया है। - इसके बाद वर्धमानसरि ने आचारदिनकर में प्रतिमाओं के उद्वहन की सामान्य चर्या का विवेचन किया है। आचारदिनकर में वर्णित इस सामान्य चर्या का वर्णन हमें दशाश्रुतस्कन्ध एवं पंचाशकप्रकरण जैसे प्राचीन ग्रन्थों में नहीं मिलता है, किन्तु दूसरी ओर इन ग्रन्थों में वर्णित प्रतिमा आराधनाकाल के विशिष्ट नियमों एवं अभिग्रहों को वर्धमानसूरि ने अपने ढंग से विवेचित करने का प्रयत्न अवश्य किया है, क्योंकि आचारदिनकर में वर्णित कुछ चर्याओं का उल्लेख हमें दशाश्रुतस्कन्ध एवं पंचाशकप्रकरण में मिलता है और कुछ चर्याओं और अभिग्रहों का उल्लेख नहीं मिलता है।
वर्धमानसरि ने आचारदिनकर में प्रथम सात प्रतिमाओं में तप का जो विवेचन किया है, वैसा ही वर्णन हमें दशाश्रुतस्कन्ध, पंचाशकप्रकरण, आवश्यकचूर्णि आदि में भी मिलता है, किन्तु आठवीं, नवीं एवं दसवीं प्रतिमा की तपश्चर्या में आंशिक भेद दृष्टिगत होता है। वर्धमानसूरि के अनुसार आठवीं, नवमी, दशमी प्रतिमा में प्रथम दिन एक भक्त, दूसरे दिन निर्जल उपवास, तीसरे दिन एकभक्त, इस प्रकार सात दिन तक एकान्तर से निर्जल उपवास के पारणे में एकभक्त किया जाता है, जबकि दशाश्रुतस्कन्ध, पंचाशक प्रकरण, आवश्यकचूर्णि आदि में आठवीं, नवीं एवं दसवीं प्रतिमा में सात-सात दिन तक निर्जल उपवास के पारणे, आयम्बिल करने का उल्लेख मिलता है। शेष ग्यारहवीं एवं बारहवीं प्रतिमाओं सम्बन्धी तप की विवेचना सभी में एक जैसी मिलती है।
मासकल्प पूर्ण होने के बाद उस प्रतिमा-साधक की अनुमोदना किस प्रकार से करें- इसका वर्णन आचारदिनकर में नहीं मिलता है, किन्तु हरिभद्रसूरिकृ त पंचाशक प्रकरण की टीका में इस सम्बन्ध में निर्देश देते हुए कहा गया है
____ "मासकल्प पूर्ण होने के बाद आराधक मुनि भव्यता के साथ स्वगच्छ में प्रवेश करे, जो इस प्रकार है-जिस गाँव या नगर में स्वगच्छ हो, उसके समीप के गाँव में वह साधु आए, आचार्य उसका परीक्षण करे और इसकी सूचना राजा को दें और तब उसकी प्रशंसा करते हुए नगर प्रवेश कराए।"
५४ पंचाशकप्रकरण, अनु.- दीनानाथ शर्मा, प्रकरण- अठारहवाँ, पृ.-३१८, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, प्रथम
संस्करण : १६६७.
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