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वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन 265 हैं। हिन्दू-परम्परा में भी आचार्य शब्द की यही व्याख्या दृष्टिगत होती है। हिन्दू-परम्परा के अनुसार
आचिनोति हि शास्त्रार्थान् आचरते स्थापयत्यपि। स्वयं आचरते यस्तु आचार्य सः उच्चते।।
अर्थात् जो शास्त्रों के अर्थों का चयन करता है और उनका आचार के रूप में कार्यान्वयन करता है तथा स्वयं भी उनका आचरण करता है, वह आचार्य कहा जाता है। इस प्रकार सभी मतों में की गई आचार्य शब्द की व्याख्या प्रायः समान ही है। आचार्य-पद पर स्थापन की क्रिया को ही आचार्य-पदस्थापन-विधि कहते है। वर्धमानसरि ने आचार्य-पद की गरिमा को स्वीकार करते हुए इसे संस्कार के रूप में स्वीकार किया है। दिगम्बर-परम्परा में भी इस संस्कार का उल्लेख स्व-गुरुस्थानवाप्ति के रूप में किया गया है,५३६ किन्तु इस संस्कार से सम्बन्धित क्रियाओं का उल्लेख हमें दिगम्बर-परम्परा के आदिपुराण में देखने को नहीं मिलता। अणगारधर्मामृत में भी मात्र इतना ही उल्लेख मिलता है कि गुरु संघ के समक्ष यह कहकर कि- आज से आप प्रायश्चित्तशास्त्र के अध्ययन, दीक्षादान आदि आचार्य कार्य को करे, पिच्छिका समर्पित करते है और उसका ग्रहण ही आचार्य-पद का ग्रहण है।०° इसके अतिरिक्त वहाँ इस संस्कार के विधि-विधान सम्बन्धी कोई उल्लेख नहीं मिलते है। इस विधि का स्पष्ट उल्लेख हुम्बुज श्रमणभक्ति संग्रह में मिलता है, जिसकी चर्चा हम यथास्थान करेंगे। वैदिक-परम्परा में भी हमें इस संस्कार की विधि का कोई उल्लेख नहीं मिलता है। वैदिक-परम्परा में इसे संस्कार के रूप में नहीं माना गया है।
इस संस्कार का मुख्य प्रयोजन जिनशासन की बागडोर को किसी सुव्यवस्थित हाथों में सौंपना है। जैन-परम्परा में आचार्य को राजा की उपमा दी गई है। जिस प्रकार राज्य संचालन का भार राजा पर होता है, उसी प्रकार सम्पूर्ण संघ-व्यवस्था का भार आचार्य पर होता है। संघ में क्या-क्या व्यवस्थाएँ करनी हैं, किस मुनि को कौनसा कार्य सौंपना है, किसे वाचनाचार्य, उपाध्याय या गणि आदि के पद पर नियुक्त करना है-यह सब कार्य आचार्य ही करता है। इस प्रकार इस संस्कार का प्रयोजन जिनशासन-व्यवस्था को दृढ़ बनाना है।
५३८ हिन्दू धर्मकोश, डॉ. राजबली पाण्डेय, पृ.-७५, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ, प्रथम संस्करण १६७८. ५५६ आदिपुराण, अनु.- डॉ. पन्नालाल जैन, पर्व-अड़तीसवाँ, पृ.-२५५, भारतीय ज्ञानपीठ, सातवाँ संस्करण :
२०००. ५४० अणगार धर्मामृत, अनु.- पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री, अध्याय- नवाँ, पृ.-६७६, भारतीय ज्ञानपीठ, प्रथम संस्करण
:१६७७.
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