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साध्वी मोक्षरत्ना श्री
के दाता को नमस्कार करे। दाता भी प्रत्युत्तर में उसे आर्शीवाद प्रदान करे।५३३ यह उपाध्याय-पददान की विधि है। इस प्रकार श्वेताम्बर एवं दिगम्बर-परम्परा में उपाध्याय-पदस्थापना की विधि में बहुत अन्तर दिखाई देता है। वैदिक-परम्परा में किस विधि से उपाध्याय पद पर नियुक्ति की जाती है; वैदिक-ग्रन्थों में उसकी विधि का अभाव होने से हम उसका तुलनात्मक अध्ययन नहीं कर सकते है। श्वेताम्बर-परम्परा के अनेक ग्रन्थों में इसकी विधि मिलती है। जैसे- विधिमार्गप्रपा, सामाचारी, सुबोधासामाचारी आदि।
इन सभी ग्रन्थों में प्रज्ञप्त विधि प्रायः समान ही है, किन्तु गच्छ-परम्परा के कारण उनमें आंशिक भिन्नता मिलती है, जिसकी चर्चा हम यहाँ कर रहे हैं।
वर्धमानसूरि के अनुसार उपाध्याय-पदारोपण की विधि प्रायः आचार्य-पदस्थापन विधि के समान ही है। इसका तात्पर्य है कि आचार्यपद के योग्य लक्षण उपाध्याय पद के सन्दर्भ में भी जानना चाहिए। वर्धमानसूरि ने उपाध्याय-पद हेतु योग्यमुनि के लक्षणों का निरूपण बहुत ही विस्तार से किया है। आचारदिनकर के सदृश उपाध्याय-पद हेतु योग्यमुनि के लक्षणों की विस्तृत चर्चा उपर्युक्त ग्रन्थों में भी नहीं मिलती है। इन योग्यताओं से युक्त होने पर ही मुनि को उपाध्याय पद से विभूषित किया जाता है। इन गुणों से युक्त होने पर कदाच शिष्य आहार-पानी की अपेक्षा किसको किस प्रकार ग्रहण करना चाहिए-इन गुणों से रहित हो, तो भी उसे उपाध्याय-पद हेतु नियुक्त करना चाहिए। जैसा कि विधिमार्गप्रपा में कहा गया है५३४
__ “नवरं उवज्झायपयं आसन्नलद्ध पइभत्तादिगुण रहियस्स विसमग्गसुतत्थ गहण धारण
वक्खाणणगुणवंतस्स सतवायणे अपरिस्संतस्स पंसतस्स आयरियाणजोगस्सेव दिज्जइ।”
अर्थात् जो शिष्य उपलब्ध आहार-पानी के सारणा-वारणा आदि गुणों से रहित होने पर भी समग्र सूत्रों के अर्थ के ग्रहण, धारण और व्याख्यान करने में गुणवंत है, उसे ही उपाध्याय-पद दिया जाना चाहिए।
__वर्धमानसूरि के अनुसार नूतन उपाध्याय-पदारोपण-विधि में तीन बार लघुनंदी का पाठ बोला जाता है। विधिमार्गप्रपा के अनुसार
५३० हुम्बुज श्रमण भक्तिसंग्रह, पृ.-४६६, श्रीसंतकुमार खण्डाका, खण्डाका जैन ज्वैलर्स, हल्दियों का रास्ता, जौहरी
बाजार, जयपुर. ५३४ विधिमार्गप्रपा, जिनप्रभसूरिकृत, प्रकरण-२८, पृ.-६५, प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर, प्रथम संस्करण २०००.
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