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वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
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कायोत्सर्ग- ये सब क्रियाएँ चार-चार बार करते है। शेष दिनों में ये सब क्रियाएँ तीन-तीन बार करते है। अन्तिम दो दिन श्रुतस्कन्ध के अनुज्ञा की विधि होती हैऐसा मूलग्रन्थ में उल्लेख है, किन्तु बृहद्योगविधि के अनुसार अंतिम दो दिनों में क्रमशः आवश्यक श्रुतस्कन्ध के समुद्देश एवं अनुज्ञा की क्रिया की जाती है और वह हमें उचित भी लगता है। इस प्रकार आठ दिनों में आवश्यकसूत्र के योग होते है। इसी प्रकार मूलग्रन्थ में दशवैकालिक, मण्डलीप्रवेश, उत्तराध्ययनसूत्र, आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, निशीथ, जीतकल्प, बृहत्कल्प, व्यवहार, दशाश्रुतस्कन्ध, ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, अंतकृत्दशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरणदशा, विपाकसूत्र, उपांगसूत्र, प्रकीर्णकसूत्र, महानिशीथसूत्र, एवं भगवतीसूत्र के योगोद्वहन की विधि का भी उल्लेख हुआ है। स्थानाभाव के कारण उसका उल्लेख हम यहाँ नहीं कर रहे है। इसकी विस्तृत जानकारी हेतु मेरे द्वारा अनुदित आचारदिनकर के द्वितीय भाग के उनतीसवें उदय के अनुवाद को देखा जा सकता है। उपसंहार
प्रत्येक वस्तु या क्रिया की क्या आवश्यकता एवं उपादेयता है, इस सम्बन्ध में विचार करना अनिवार्य है। योगोद्वहन के माध्यम से जीव को बाह्य पौद्गलिक जगत् से दूर करके स्व में स्थित किया जाता है, क्योंकि जब तक साधक बहिरात्मा बना रहता है, अर्थात् ऐन्द्रिक विषयों में रूचि रखता है, तब तक वह सूत्रों का भी सम्यक् प्रकार से अध्ययन नहीं कर पाता है। व्यवहार में भी हम देखते हैं कि जब तक हम अपना मन एकाग्र नहीं करते हैं, तब तक हमारा मन अध्ययन में नहीं लगता है। चाहे व्यक्ति की आंखें हाथ में रही हुई पुस्तक का अवलोकन करती रहे, किन्तु वह उस पुस्तक में रहे हुए विषय का हार्द समझ नहीं पाता है। इसी प्रकार किस विषय को किस अपेक्षा से कहा गया है, इसको जान पाना भी तब तक सम्भव नहीं है, जब तक हम उस विषय की गहराई तक नहीं पहुँचें। साधारण से विषय को समझने के लिए भी जब हमें इतनी सावधानी रखनी पड़ती है, तो स्याद्वाद की प्रचुरता वाले आगमग्रन्थों को जानने के लिए तो कितनी सावधानी रखनी पड़ेगी; क्योंकि आगमग्रन्थों में किस विषय को किस समय किस नय की अपेक्षा से कहा गया है, इसे धीर और गम्भीर व्यक्ति ही समझ सकता है। योगोद्वहन के माध्यम से उसे साधना के ऐसे स्तर पर पहुँचाया जाता है कि जिससे वे उस विषय का सम्यक् अध्ययन कर सकें। योगोद्वहन करने से न केवल आगम सूत्रों के वांचन का ही अवसर प्राप्त होता है, वरन् कर्मों की निर्जरा भी होती है, क्योंकि मन-वचन-कायारूप योग को अशुभ प्रवृत्ति करने का अवकाश
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