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साध्वी मोक्षरत्ना श्री
ही नहीं मिलता है। इसी के साथ ही केवल उनकी शुभ प्रवृत्तियाँ ही क्रियाशील रहतीं हैं, अतः कर्मों को क्षय करने में भी इस संस्कार का महत्वपूर्ण अवदान है। वर्तमान में भी श्वेताम्बर - परम्परा के कुछ गच्छों में यह परम्परा प्रचलित
वाचना ग्रहण विधि
वाचना-ग्रहण- - विधि का स्वरूप
वाचना-ग्रहण का तात्पर्य है कि विधिपूर्वक सिद्धांतग्रन्थों के सूत्रार्थ को ग्रहण करना। इस विधि में वाचना-ग्रहण से लेकर वाचना के पश्चात् तक की समस्त क्रियाओं का उल्लेख किया गया है। वाचना - ग्रहण करने से पूर्व मुनि को क्या-क्या करना चाहिए, वाचना ग्रहण करते समय उसे किस प्रकार बैठना चाहिए, वाचना पूर्ण होने पर उसे क्या करना चाहिए इत्यादि क्रियाओं का इस विधि में उल्लेख किया गया है। यद्यपि योगोद्वहन के मध्य भी सिद्धांतसूत्रों की वाचना दी जाती है, किन्तु वहाँ उनका उल्लेख मात्र ही है । वाचना ग्रहण करने वाला मुनि क्या - क्या क्रियाएँ करे ? इन सबका विस्तृत उल्लेख उसमें इतनी स्पष्टता के साथ नहीं किया गया है, इसी हेतु वर्धमानसूरि ने इसे संस्कार का रूप देकर इसकी पृथक् से व्याख्या की है। दिगम्बर - परम्परा में भी वाचना ग्रहण की जाती है, किन्तु इस सम्बन्ध में पं. आशाधरजी की कृति अणगारधर्मामृत' में मात्र इतना ही उल्लेख मिलता है कि साधुओं को ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी के दिन बृहत् सिद्धभक्ति और बृहद् श्रुतभक्तिपूर्वक श्रुतस्कन्ध की वाचना, अर्थात् श्रुत के अवतार, अर्थात् श्रुत के अवतरण का उपदेशग्रहण करना चाहिए। उसके बाद श्रुतभक्ति और आचार्यभक्ति करके स्वाध्याय करना चाहिए और श्रुतभक्तिपूर्वक स्वाध्याय को समाप्त करना चाहिए । समाप्ति पर शान्तिभक्ति भी करनी चाहिए। इसके अतिरिक्त वाचना ग्रहण करने के सम्बन्ध में कोई विस्तृत उल्लेख नहीं मिलते है ।
-५०४
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वर्धमानसूरि के अनुसार इस संस्कार का प्रयोजन गुरु- मुख से वाचना ग्रहण करना है, क्योंकि गुरु के बिना प्राप्त ज्ञान आकाश- कुसुम के समान निरर्थक होता है। जिस प्रकार आकाशपुष्प का कोई अर्थ (मूल्य) नहीं होता है, उसी प्रकार गुरु बिना गृहीत ज्ञान का भी कोई मूल्य नहीं होता है। गुरुगम से प्राप्त किया गया ज्ञान ही आत्मोत्थान में सहायक होता है। गुरुगम के बिना प्राप्त किया गया ज्ञान
५०४ अणगारधर्मामृत, अनु. - कैलाशचन्द्र शास्त्री, अध्याय - ६, पृ. ६७२-७३, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, प्रथम
संस्करण १६७७.
५०५ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय- बाईसवाँ, पृ. ३६२, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२.
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