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वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
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आत्मा का उत्थान कर सके, यह संभव नहीं है। इस प्रकार इस संस्कार का मुख्य प्रयोजन गुरुगम से वाचना ग्रहण करना है।
वर्धमानसूरि के अनुसार यह विधि वाचना-ग्रहण के समय की जानी चाहिए, किन्तु किस दिन एवं किस समय वाचना ग्रहण करे, इसका उल्लेख उन्होंने इस उदय में नहीं किया है। सामान्यतया स्वाध्याय के लिए आगमों में जो समय बताया गया है, उसी समय में शास्त्रों के अध्ययन एवं अध्यापन का कार्य करना चाहिए। अनध्यायकाल में सूत्रों के अध्ययन एवं अध्यापन का कार्य नहीं करना चाहिए। स्थानांगसूत्र'०६ में इस विषय की चर्चा करते हुए बत्तीस अनध्यायों का उल्लेख किया गया है। दिगम्बर-परम्परा के मूलाचार में भी स्वाध्याय के कात्वादि का वर्णन मिलता है। विधिमार्गप्रपा०८ में भी अनध्याय विषयक उल्लेख मिलते हैं। इसी प्रकार वैदिक-परम्परा में भी मनुस्मृति आदि स्मृतियों में अनध्यायकाल का विस्तृत वर्णन मिलता है। संस्कार का कर्ता
वर्धमानसूरि के अनुसार यह संस्कार निर्ग्रन्थ मुनियों द्वारा किया जाता है। दिगम्बर-परम्परा में भी सामान्यतः शास्त्रों की वाचना निर्ग्रन्थ मुनियों के द्वारा ही ग्रहण की जाती है।
वर्धमानसूरि ने आचारदिनकर में इसकी निम्न विधि प्रज्ञप्त की है:वाचना-ग्रहण विधि
वर्धमानसूरि ने सर्वप्रथम इस विधि में वाचना ग्रहण करने के योग्य मुनि के लक्षणों का निरूपण किया है। तत्पश्चात् यह बताया गया है कि गुरु कैसे होने चाहिए। तदनन्तर योगोद्वहन हेतु आवश्यक सामग्री का उल्लेख किया गया है। तत्पश्चात् वाचनाग्रहण की विधि का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि दृढ़योग वाला मुनि विधिपूर्वक प्रभातकाल ग्रहण कर स्वाध्याय प्रस्थापन करे। तत्पश्चात् गुरु के पास जाकर गमनागमन में लगे दोषों का प्रतिक्रमण कर गुरु को द्वादशावत वन्दन करे। तत्पश्चात् शिष्य गुरु को अध्ययन आरंभ कराने के लिए निवेदन करे
१० स्थानांगसूत्र, सम्पादक- मुनिजम्बुविजयजी, सूत्र-२८५ एवं ७१४, महावीर जैन विद्यालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण
१९८५. 'मुलाचार, डॉ. फूलचन्द्र जैन प्रेमी एवं डॉ. श्रीमती मुन्नी जैन, अधिकार-पंचम, प्र.-१६३ से १६४, भारतवर्षीय
अनेकांत विद्वत् परिषद्, प्रथम संस्करण १६६६. ५°विधिमार्गप्रपा, जिनप्रभसूरिकृत, प्रकरण-२१, पृ.-४१ से ४२, प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर, प्रथम संस्करण
२०००.
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