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साध्वी मोक्षरला श्री मुनि-आचारों का भी पालन नहीं कर पाता है। अतः साधक निरतिचार मुनि-जीवन का पालन कर सके, इस हेतु उसे इन ग्रन्थों का अध्ययन करवाया जाता है।
वर्धमानसूरि के अनुसार मण्डली-योगोद्वहन के पश्चात् ही नूतन मुनि पूर्व में दीक्षित मुनियों के साथ एक पंक्ति में बैठकर भोजन कर सकता है। इसी तरह अन्य सामूहिक क्रियाओं के सम्बन्ध में भी होता है। इस संस्कार से पूर्व उसकी सब व्यवस्थाएँ अलग होती है। जैसे- सूत्र की वाचना के समय नूतन मुनि पूर्व दीक्षित मुनियों के साथ नहीं बैठ सकता है, अगर बैठाना भी पड़े, तो डोरी या अन्य किसी वस्तु का मण्डल या सीमा बनाकर उसमें ही उसे बैठाया जाता है। इस संस्कार के पश्चात् ही वह भोजन, प्रतिक्रमण आदि सामूहिक रूप से मिलकर कर सकता है, उससे पूर्व नही। वस्तुतः इस संस्कार के पश्चात् ही वह मुनिसंघ का सदस्य माना जाता है।
वर्तमान में भी यही व्यवस्था देखने को मिलती है। इस प्रकार यह संस्कार साधक के आध्यात्मिक विकास, मुनि-जीवन के सम्यक् परिपालन एवं निर्ग्रन्थ मुनि-संघ का सदस्य बनने हेतु आवश्यक है।
__ योगोद्वहन-विधि योगोद्वहन विधि का स्वरूप
योगोद्वहन शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है- योग+उद्वहन। योग शब्द के वैसे तो अनेक अर्थ हैं, किन्तु जैनदर्शन में मन, वचन एवं काया की प्रवृत्तियों को योग कहा जाता है, उद्वहन का तात्पर्य है- ऊर्ध्वमुखी गमन। अतः योगोद्वहन का तात्पर्य मन-वचन-काया की प्रवृत्तियों को ऊर्ध्वमुखी या आत्मोन्मुखी बनाना है। वर्धमानसूरि के अनुसार मन, वचन और काया की समाधिपूर्ण-तप साधना को योग कहते हैं, अथवा आगम या सिद्धांत-ग्रन्थों की वाचना हेतु अन्यत्र उल्लेखित तप-साधना को योगोद्वहन कहते हैं।४६६ दिगम्बर-परम्परा एवं वैदिक-परम्परा में सूत्रों के अध्ययनार्थ इस प्रकार तप करने के विधानों का उल्लेख प्रायः नहीं मिलता है।
दिगम्बर-परम्परा में श्वेताम्बर परम्परा की भाँति योगोद्वहन के माध्यम से शास्त्रों का अध्ययन कराए जाने की परम्परा नहीं है। वहाँ मात्र शास्त्र की
आचारदिनकर, वर्षमानसूरिकृत, उदय-बीसवाँ, पृ.-३६१, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२. आचारदिनकर, वर्षमानसूरिकृत, उदय-इकीसवाँ, पृ.-८१, निर्णयसागार मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२.
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