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वर्धमानसरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
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तुलनात्मक-विवेचन -
श्वेताम्बर-परम्परा में क्षीराशन नामक संस्कार को अन्य संस्कारों की भाँति एक स्वतंत्र संस्कार माना गया है, जबकि दिगम्बर एवं वैदिक-परम्परा में इस संस्कार को जातकर्म-संस्कार के अन्तर्गत माना गया है।
वर्धमानसूरि के अनुसार श्वेताम्बर-परम्परा में यह संस्कार जन्म के पश्चात् तीसरे दिन, अर्थात् सूर्य-चन्द्रदर्शन के दिन ही किया जाता है, परन्तु दिगम्बर-परम्परा में यह संस्कार जातकर्म के दिन ही, अर्थात् प्रथम दिन ही विधि-विधान एवं मंत्रोच्चार के साथ किया जाता है। इस परम्परा में इसे प्रियोद्भव नाम की क्रिया में ही समाहित किया गया है। वैदिक-परम्परा में भी इसे स्वतंत्र संस्कार के रूप में उल्लेखित नहीं किया गया है, उन्होंने भी इसे जातकर्म में ही अन्तर्निहित मान लिया है। उनके अनुसार भी स्तनपान के विधि-विधान दिगम्बर-परम्परा की भाँति ही प्रथम दिन ही किए जाते हैं।
श्वेताम्बर-परम्परा में आचारदिनकर के अनुसार गृहस्थ-गुरु अमृतमंत्र के द्वारा १०८ बार अभिमंत्रित तीर्थ-जल को शिशु की माता के दोनों स्तनों पर सिंचित करते हैं। उसके पश्चात् ही माता शिशु को स्तनपान कराती है। दिगम्बर-परम्परा में भी माता के स्तन को अभिमंत्रित जल से अभिसिंचित करने के बाद ही स्तनपान करवाने का निर्देश मिलता है, जबकि वैदिक-परम्परा में मात्र वैदिक मंत्रोच्चार के साथ शिशु को स्तनपान कराए जाने का उल्लेख है, परन्तु तीनों ही परम्पराओं में संस्कार के समय बोले जाने वाले मंत्रों में भिन्नता है; जैसे- श्वेताम्बर-परम्परा में माँ के स्तन को अभिसिंचित करने वाले जल को निम्न अमृतमंत्र से अभिसिंचित किया जाता है -
"ऊँ अमृते अमृतोद्भवे अमृतवर्षिणि अमृतं स्रावय-स्रावय स्वाहा।।"
दिगम्बर-परम्परा में "विश्वेश्वरीस्तन्यभागीभूया"२६०, अर्थात् तू तीर्थंकर की माता के स्तन का पान करने वाला हो - इस मंत्र द्वारा माता के स्तनों को मंत्रित करते हैं।
२५८ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत (प्रथम विभाग), उदय-पांचवाँ, पृ.-१२, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, सन्
१६२२. २५६ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत (प्रथम विभाग), उदय-पांचवाँ, पृ.-१२, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, सन्
१६२२. २६° आदिपुराण, जिनसेनाचार्यकृत, अनु.-डॉ. पन्नालाल जैन, पर्व-चालीसवाँ, पृ.-३०५, भारतीय ज्ञानपीठ सातवाँ
संस्करण २०००
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