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वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
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करने के लिए तथा अपने-अपने गुरु द्वारा उपदिष्ट धर्ममार्ग में प्रवेश पाने हेतु उपनयन नामक संस्कार किया जाता है। दिगम्बर-परम्परा के अनुसार इस संस्कार को करने का प्रयोजन बालक को द्विजत्व की प्राप्ति कराना तथा उसे व्रतों द्वारा सुसंस्कारित करके विद्याध्ययन कराना था। वैदिक-परम्परा में इस संस्कार को किए जाने का मूलभूत प्रयोजन विद्याध्ययन एवं द्विजत्व की प्राप्ति ही था।
यहाँ वर्धमानसूरि का एवं दिगम्बर जैन आचार्य जिनसेन का दृष्टिकोण वैदिक-परम्परा से अंशतः भिन्न रहा है, क्योंकि वैदिक-परम्परा जन्मना वर्ण-व्यवस्था को स्वीकार करती है, अतः उसमें सामान्यतया ब्राह्मण-कुल में जन्में बालक और विशेष अवस्था में क्षत्रिय एवं वैश्य-कुल में उत्पन्न बालक का ही उपनयन-संस्कार होता है। उसमें संस्कार के माध्यम से वर्ण-परिवर्तन नहीं होता है, जबकि जैन-परम्परा के अनुसार इस संस्कार के माध्यम से विद्याध्ययन कर कोई व्यक्ति ब्राह्मण आदि वर्ण विशेष को प्राप्त कर सकता है, क्योंकि जैन-परम्परा में वर्ण व्यवस्था कर्मणा है।
जिनसेन के आदिपुराण एवं वर्धमानसूरि के आचारदिनकर के अनुसार ब्राह्मण जन्म से नहीं, अपितु विशेष व्रतों को धारण करके बना जाता है। यद्यपि उपनयन-संस्कार की इस चर्चा में वर्धमानसूरि ने कहीं-कहीं वैदिक-परम्परा का अनुसरण करते हुए जन्मना जातिवाद का समर्थन भी किया है। संस्कार का कर्ता -
वर्धमानसूरि के अनुसार यह संस्कार जैन ब्राह्मण या क्षुल्लक द्वारा करवाया जाता है। दिगम्बर-परम्परा के अनुसार यह संस्कार आदिपुराण में निर्दिष्ट योग्यता को धारण करने वाले जैन द्विजों द्वारा करवाया जाता है। वैदिक-परम्परा में यह संस्कार कौन करवाए, अर्थात् किसके द्वारा करवाया जाता है, इस सम्बन्ध में स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलते हैं, परन्तु सामान्यतः ब्राह्मणों द्वारा ही यह संस्कार करवाया जाता है।
- आचारदिनकर में वर्धमानसूरि ने उपनयन-संस्कार की निम्न विधि प्रतिपादित की है -
३१ आदिपुराण, जिनसेनाचार्यकृत, अनुवादक - डॉ. पन्नालाल जैन, पर्व-अड़तीसवाँ, पृ.-३१०, भारतीय ज्ञानपीठ,
सातवाँ संस्करण : २०००
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