________________
वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
की विधि एवं गोदान - विधि का उल्लेख किया गया है। इसके अतिरिक्त यह भी बताया गया है कि गोदान आदि गृहस्थ गुरु एवं विप्रों को ही दें, निःस्पृह यतियों को नहीं। उन्हें अन्न-पान, वस्त्र आदि का ही दान दें। तत्पश्चात् गृहस्थ गुरु उपनीत पुरुष को वर्ण की अनुज्ञा देकर महोत्सवपूर्वक उपाश्रय में ले जाए तथा पूर्व की भाँति मण्डलीपूजा आदि करे। तदनन्तर चतुर्विध संघ की पूजा कर साधुओं को आहार आदि का दान दे। यह उपनयन की विधि है। इसके बाद मूलग्रन्थ में शूद्र को उत्तरीय वस्त्र देने की तथा बटुक बनाने की विधि का उल्लेख हुआ है। अन्त में उपनयन संस्कार सम्बन्धी सामग्री का उल्लेख किया गया है।
177
इस विधि की विस्तृत जानकारी के लिए मेरे द्वारा किए गए आचारदिनकर के प्रथम खण्ड के बारहवें उदय के अनुवाद को देखा जा सकता है।
तुलनात्मक विवेचन -
उपनयन नामक यह संस्कार तीनों ही परम्पराओं में किया जाता है, लेकिन उनके विधि-विधानों में कुछ भिन्नता है, जिसे हम तुलनात्मक अध्ययन के माध्यम से जान सकते हैं।
वर्धमानसूरि ने इस संस्कार का महत्व एवं इतिहास के प्रमाणों की चर्चा करने के पश्चात् किनको जिनोपवीत धारण करना चाहिए - इसका विवेचन किया है। उनके अनुसार निर्ग्रन्थ यतियों को उपवीत धारण करना आवश्यक नहीं है, क्योकि वे तत्स्वरूप हैं, अतः उपवीत केवल गृहस्थों के लिए ही धारण करना आवश्यक है । ३५६ दिगम्बर - परम्परा में इस सम्बन्ध में कोई उल्लेख नहीं मिलता है कि उपवीत को कौन धारण करे, कौन नहीं। जो भी श्रावक के व्रतों को स्वीकार कर सदाचारपूर्ण जीवन व्यतीत करना चाहे तथा अध्ययन, अध्यापन एवं धर्मसाधना में रूचि ले, वह उपवीत धारण कर सकता है। वैदिक-परम्परा में सामान्यतः संन्यासी यज्ञोपवीत धारण नहीं करता, लेकिन यदि करना चाहे, तो एक यज्ञोपवीत को धारण कर सकता हैं ऐसा उल्लेख मिलता है।
. ३५७
वर्धमानसूरि के अनुसार जिनउपवीत का तात्पर्य नवब्रह्मचर्यगुप्तियुत ज्ञान, दर्शन, चारित्र के चिन्हरूप मुद्रासूत्र से है। दिगम्बर - परम्परा में उपवीत का तात्पर्य
३५६ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत ( प्रथम विभाग), उदय - बारहवाँ, पृ. १६, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, सन्
१६२२
३५७ धर्मशास्त्र का इतिहास (भाग-प्रथम), पांडुरंग वामन काणे, अध्याय-७, पृ. २१८, उत्तरप्रदेश, हिन्दी संस्थान, लखनऊ, तृतीय संस्करण : १६८०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org