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साध्वी मोक्षरत्ना श्री मृत्यु के भय से मुक्त कर आत्मसाधना के लिये प्रेरित किया जाता है, जिससे व्यक्ति मृत्यु आने पर भी भयाक्रान्त नहीं होकर, समभावपूर्वक उसका स्वागत करे। जैन-चिन्तन में मानव-जीवन का अन्तिम लक्ष्य आत्मा के स्वरूप की प्राप्ति है। इस हेतु साधना का आश्रय लेना आवश्यक है। इस संस्कार के माध्यम से साधक को तप आदि विविध प्रकार की साधना करवाई जाती है, जिससे वह अपने जीवन के अन्तिम क्षणों में सजग एवं अनासक्त रहे तथा अपने पापों की आलोचना कर आत्मसाधना में संलग्न हो अपने देह का विसर्जन करे। इस प्रकार जैन परम्परा में इस संस्कार का मुख्य प्रयोजन व्यक्ति को आत्मोन्मुखी करना था, न कि मात्र मृतदेह की अन्तिम क्रिया। ज्ञातव्य हैं कि वैदिक-परम्परा में व्यक्ति के इस संसार से प्रस्थान करने पर उसके भावी जीवन के सुख या कल्याण के प्रयोजन से अन्त्येष्टि (अन्त्य) संस्कार किया जाता है, क्योंकि हिन्दू-परम्परा में इस लोक की अपेक्षा परलोक को अधिक महत्व दिया गया है।
वर्धमानसूरि के अनुसार जीवन-दीप के बुझने की स्थिति में, अर्थात् मृत्यु की सन्निकटता को जानकर यह संस्कार विधि-विधानपूर्वक करवाया जाता है। श्वेताम्बर एवं दिगम्बर-परम्परा के साहित्य में मृत्यु की सन्निकटता को जानने के अनेक उपाय भी बताए गए हैं, जिसका वर्णन हम यथास्थान करेंगे। वैदिक-परम्परा में भी कुछ ग्रन्थकारों ने इसे संस्कार के रूप में स्वीकार किया है। गौतम आदि कुछ गृह्यसूत्रों में इसे संस्कार के रूप में स्वीकार नहीं किया गया है, किन्तु जातूकर्ण्य में इसे संस्कार के रूप में विवेचित किया गया है।४३१
. इस प्रकार वैदिक-परम्परा में इस सम्बन्ध में आंशिक मतभेद दृष्टिगत होता है। संस्कारकर्ता -
वर्धमानसरि के अनुसार इस संस्कार में समाधिमरण सम्बन्धी आराधना निर्ग्रन्थ यति तथा देह की अन्त्येष्टि की क्रिया श्रावक या जैन ब्राह्मण द्वारा की जाती है। दिगम्बर-परम्परा में इस सम्बन्ध में स्पष्ट उल्लेख नहीं है, किन्तु भगवतीआराधना के अनुसार समाधिमरण की साधना मुनि या आचार्य द्वारा करवाई जाती है और देह-विसर्जन की क्रिया श्रावकवर्ग करता है। मुनि के कालधर्म (स्वर्गवास) होने पर कुछ क्रियाएँ मुनिगण एवं कुछ क्रियाएँ श्रावकवर्ग करता है, यद्यपि प्राचीन ग्रन्थों के अनुसार मुनि के मृत देह की विजहना या
५" देखे - धर्मशास्त्र का इतिहास, पांडुरंग वामन काणे (प्रथम भाग), अध्याय-६, पृ.-१७८, उत्तरप्रदेश, हिन्दी
संस्थान, लखनऊ, तृतीय संस्करण : १६८०
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