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वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
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उपदेश भी दे। इस व्रत में प्रायः सचित्त का सम्पूर्ण रूप से त्याग नहीं होता है, केवल ब्रह्मचर्यव्रत का धारण किया जाता है। कथन उपदेश देने के बाद गुरु ब्रह्मचारी को वासक्षेप प्रदान करे। तदनन्तर शिखासूत्र आदि को धारण करते हुए मौन एवं शुभध्यान में निमग्न वह ब्रह्मचारी तीन वर्ष तक विचरण करे। तीन वर्ष तक शुद्ध ब्रह्मचर्य का पालन करने पर ही वह क्षुल्लकत्व के योग्य होता है, अन्यथा नही। इससे सम्बन्धित विस्तृत जानकारी हेतु मेरे द्वारा किए गए आचारदिनकर के द्वितीय भाग में सत्रहवें उदय के अनुवाद को देखा जा सकता
तुलनात्मक विवेचन
यहाँ सर्वप्रथम यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि ब्रह्मचर्यव्रत ग्रहण करने की काल की अपेक्षा से दो कोटियाँ है। (१) नियतकाल के लिए एवं (२) जीवनपर्यन्त के लिए। नियतकाल के लिए जो ब्रह्मचर्यव्रत ग्रहण किया जाता है, वह एक अवधि विशेष के लिए ही होता है। सामान्यतः इस प्रकार का व्रत गृहस्थों द्वारा ग्रहण किया जाता है। जैसे अध्ययनकाल की अवधि में, अथवा उपनयन के समय बालक को ब्रह्मचारी बनाया जाता है तथा अध्ययनकाल पूर्ण होने पर उस व्रत का विर्सजन करा दिया जाता है। इस प्रकार एक अवधि विशेष के लिए गृहीत ब्रह्मचर्यव्रत का उस अवधि के पूर्ण होने पर स्वतः ही विसर्जन हो जाता है।
दूसरा, जीवनपर्यन्त हेतु गृहीत ब्रह्मचर्यव्रत जीवन के अन्तिम क्षण तक के लिए होता है। सामान्यतः इस प्रकार का व्रत जैन-परम्परा में निर्ग्रन्थ मुनियों तथा वैदिक-परम्परा में संन्यासी द्वारा ग्रहण किया जाता है। दिगम्बर-परम्परा में ब्रह्मचारी के जो पाँच प्रकार बताए हैं; उपनयन, अवलम्ब, अदीक्षा, गूढ़, और नैष्ठिक- इन पाँच भेदों में से नैष्ठिक ब्रह्मचारी भी जीवनपर्यन्त हेतु इस व्रत का ग्रहण करता है। इसी प्रकार वैदिक-परम्परा में नैष्ठिक ब्रह्मचारी द्वारा गृहीत ब्रह्मचर्यव्रत यावत् जीवन हेतु होता है।४६
इस प्रकार विभिन्न अवसरों या क्रियाओं के प्रसंग में ब्रह्मचर्यव्रत की अवधि के सम्बन्ध में विभिन्न मत मिलते हैं, विस्तार के भय से उन सबका यहाँ विवेचन करना सम्भव नहीं है।
'सागारधर्मामृत, अनु.-आर्यिका सुपार्श्वमति जी, अध्याय-सातवाँ, पृ.-३७६, भारतवर्षीय अनेकांत विद्वत् परिषद, तृतीय संस्करण १६६५.
धर्मशास्त्र का इतिहास प्रथम भाग) पांडुरंग वामन काणे, अध्याय- सातवाँ, पृ.-२५३, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ, तृतीय .स्करण १९८०.
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