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साध्वी मोक्षरत्ना श्री
मिलता है। दिगम्बर-परम्परा७७ में दीक्षा के अधिकारी की चर्चा करते हुए कहा गया है कि साधुजीवन अत्यन्त पवित्र जीवन होता है, अतः बाल, वृद्ध, नपुंसक, रोगी, अंगहीन, डरपोक, बुद्धिहीन, डाकू, राजशत्रु, पागल, अन्ध, दास, धूर्त, मूढ़, कर्जदार, भागे हुए एवं गर्भिणी, प्रसूता को मुनिदीक्षा नहीं देनी चाहिए। यहाँ गर्भिणी, प्रसूता आदि के उल्लेख यह सिद्ध करते हैं कि स्त्रियों को दीक्षा देते समय इस बात का विचार किया जाता था।
ज्ञातव्य है कि श्वेताम्बर-परम्परा मे चारों वर्गों के व्यक्ति श्रमण हो सकते हैं, किन्तु दिगम्बर-परम्परा में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को ही दीक्षा के योग्य माना गया है। वैदिक-परम्परा में चारों वर्गों के लोग संन्यास धारण कर सकते हैं या केवल ब्राह्मण ही दीक्षा के योग्य है? इस प्रश्न के प्रत्युत्तर में गहरा मतभेद है। कुछ विद्वान चारों ही वर्गों के लोगों को संन्यास के योग्य मानते है। इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा धर्मशास्त्र के इतिहास ग्रन्थ७८ में की गई है। आचारदिनकर में वर्धमानसूरि के दीक्षा के अधिकारी का वर्णन करने के पश्चात् दीक्षा देने के अधिकारी, अर्थात् दीक्षा प्रदाता के सम्बन्ध में भी विचार किया है। उनके अनुसार आचार्य एवं आचार्य की अनुपस्थिति में उपाध्याय आदि दीक्षा देने के अधिकारी है। यहाँ वर्धमानसूरि ने दीक्षाप्रदाता के योग्य लक्षणों का निरूपण नहीं किया है। पंचवस्तुक नामक ग्रन्थ के प्रव्रज्याविधान प्रकरण में दीक्षा प्रदाता की योग्यता का विस्तार से वर्णन किया गया है। योग्य गुरु के होने से क्या-क्या लाभ होते हैं, उसका भी बहुत सुन्दर विवेचन मिलता है। वैदिक-परम्परा के ग्रन्थों में इस प्रकार की चर्चा हमारे देखने में नहीं आईं
आचारदिनकर में वर्धमानसरि ने दीक्षाविधि एवं उससे पूर्व करणीय कार्यों का बहुत विस्तार से विवेचन किया है। जैसे८० दीक्षा से पूर्व शुभ लग्न में पौष्टिक कर्म करे, महादान दें। सभी धर्मों व दर्शनों के अनुयायी याचकों को संतुष्ट करें, इत्यादि। दीक्षा के समय यदि साधक शूद्रवर्ण का हो, तो उसे उपनयन आदि की विधि से संस्कारित करें। तत्पश्चात् दीक्षार्थी महत् आडम्बरपूर्वक स्वजनों के साथ चैत्य में परमात्मा की पूजा करके गुरु के उपाश्रय आए। फिर स्वयं वस्त्राभरण उतारकर सिर के केशों का लोच करे या मुण्डन करवाकर सिर पर शिखामात्र
४७७ अणगारधर्मामृत, अनु. कैलाशचन्द्र शास्त्री, अध्याय-६, पृ-६६३, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, प्रथम संस्करण
१६७७ ४७८ धर्मशास्त्र का इतिहास (प्रथम भाग), डॉ. पांडुरंग वामण काणे, अध्याय-२८, पृ.-४१६ से ४१७, उत्तरप्रदेश
हिन्दी संस्थान, लखनऊ, तृतीय संस्करण १९८०. ४७६ पंचवस्तुक, अनु.- आचार्य राजशेखरसूरि, द्वार-प्रथम, पृ.-१३ से १७, अरिहंत आराधक ट्रस्ट, बॉम्बे, द्वितीय
संस्करण. ४९° आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय-उन्नीसवाँ, पृ.-७६, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२.
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