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साध्वी मोक्षरत्ना श्री
अन्तिम तीर्थकर ने ही पंचमहाव्रतरूप पंचयाम का उपदेश दिया, जबकि शेष तीर्थंकरों ने चातुर्यामधर्म का उपदेश दिया। दिगम्बर-परम्परा में भी यही अवधारणा है। अणगार धर्मामृत' के अनुसार- “जब कोई मुनि दीक्षा लेता है, तो वह निर्विकल्प सामायिक-संयम पर ही आरूढ़ होता है, किन्तु अभ्यास न होने से जब उससे च्युत होता है, तब वह भेदरूप व्रतों को धारण करता है और वह छेदोपस्थापक कहलाता है, लेकिन पण्डित आशाधर जी की यह मान्यता आगमोक्त नहीं है, क्योंकि उनके काल में दिगम्बर-परम्परा में सामान्यतः मुनि-परम्परा विच्छिन्न हो गई थी और भट्टारक-परम्परा का प्रादुर्भाव हो गया था। इसीलिए महावीर के शासन में द्विविधचारित्र, अर्थात् सामायिकचारित्र एवं छेदोपस्थापनीयचारित्र की जो व्यवस्था थी, उसे वे समझ नहीं पाए। प्राचीन परम्परा में किसी दीक्षार्थी को सर्वप्रथम सामायिकचारित्र प्रदान किया जाता था और जब वह उसकी साधना में परिपक्व हो जाता था तथा अंहिसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं परिग्रह-विरमण व्रत को पूर्णतः पालन करने में तत्पर होता था, तो उसे छेदोपस्थापनीयचारित्र प्रदान किया जाता था। श्वेताम्बर परम्परा में चारित्र ग्रहण के ये दोनों भेद सुरक्षित रहे तथा वर्धमानसूरि ने भी प्रव्रज्या एवं उपस्थापन के रूप में इन दोनों चारित्रों के ग्रहण करने का उल्लेख किया है। इस प्रकार दोनों परम्पराओं की इस संस्कार के सम्बन्ध में अपनी-अपनी अवधारणा है। वैदिक-परम्परा में इस प्रकार का कोई संस्कार हमें देखने को नहीं मिलता है।
वर्धमानसूरि के अनुसार इस संस्कार का प्रयोजन दीक्षित मुनि को पंचमहाव्रत एवं छठवें रात्रिभोजन-विरमणव्रत के पालन की प्रतिज्ञा ग्रहण करवाना है। छेदोपस्थापनीयचारित्र ग्रहण करने पर ही वह मुनि संघ का सदस्य बनता है। इसके बाद ही उसे साधुओं की सप्तमण्डली में प्रवेश दिया जाता है। दिगम्बर-परम्परा में भी जिनरूपता नामक क्रिया के रूप में यह संस्कार करवाया जाता है। हुम्बुज श्रमणभक्ति संग्रह में इसे बृहद्दीक्षा विधि के नाम से उल्लेखित किया गया है।
यह संस्कार किस मुहूर्त आदि में करें, इसका तो उल्लेख आचारदिनकर में मिलता है, किन्तु यह संस्कार किस वय में किया जाना चाहिए, इस सम्बन्ध में कोई विशेष उल्लेख नहीं मिलता है। व्यवहारसूत्र में इसका विस्तृत विवेचन है। प्रथम एवं अन्तिम तीर्थंकर के शासन में भिक्षुओं को सामायिकचारित्ररूप दीक्षा देने
* अणगारधर्मामृत, अनु.-कैलाशचन्द्र शास्त्री, अध्याय-६, पृ.-६६३, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, प्रथम संस्करण
१६७७. xc६ आदिपुराण अनु.-डॉ. पन्नालाल जैन, पर्व-अड़तीसवाँ, पृ.-२६५-२६६, भारतीय ज्ञानपीठ, सातवाँ संस्करण
२०००.
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