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वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
हेतु मेरे द्वारा अनुदित आचारदिनकर के द्वितीय भाग में बीसवें उदय को देखा जा सकता है।
तुलनात्मक विवेचन
वर्धमानसूरि के अनुसार स्वयंबुद्ध अरिहंत परमात्मा सामायिकचारित्र को स्वीकार करके यतिधर्म की प्रव्रज्या ग्रहण करते है। वे बुद्धबोधित नहीं होते हैं तथा पंचमहाव्रत उच्चारणरूप छेदोपस्थापनीयचारित्र भी ग्रहण नहीं करते हैं। ' इस बात की पुष्टि आगम ग्रन्थों से भी होती है। दिगम्बर - परम्परा में सामान्यतः यही अवधारणा मिलती है।
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वर्धमानसूरि के अनुसार इस संस्कार में नंदीविधि सहित आवश्यकसूत्र एवं दशवैकालिकसूत्र के योगोद्वहन करवाए जाते है। मण्डलीप्रवेश योगोद्वहन के मध्य दशवैकालिकसूत्र के तीन अध्ययन के तीन आयम्बिल होने पर नंदी एवं उपस्थापना की विधि की जाती है। दिगम्बर - परम्परा में इस प्रकार की क्रिया प्रायः देखने को नहीं मिलती है। दिगम्बर- परम्परा में जिनरूप नामक क्रिया की विधि आंशिक रूप से वर्धमानसूरि वर्णित प्रव्रज्याविधि से मिलती है। यहाँ मात्र इतना अन्तर है कि श्वेताम्बर - परम्परा में प्रव्रज्याविधि के समय सर्वविरतिरूप सामायिकचारित्र का ही ग्रहण करवाया जाता है, किन्तु दिगम्बर - परम्परा में जिनरूप नामक क्रिया में सर्वविरतिसामायिक के अतिरिक्त पांच महाव्रत आदि का भी ग्रहण करवाया जाता है। दिगम्बर - परम्परा में जिनरूप नामक क्रिया में ही साधक को पंचमहाव्रतों का आरोपण करवाया जाता है, इसलिए इस क्रिया की तुलना हमने वर्धमानसूरि द्वारा निर्दिष्ट उपस्थापना नामक संस्कार से की है। दिगम्बर - परम्परा के हुम्बुज श्रमणभक्ति संग्रह * में इसी विधि को बृहद् दीक्षाविधि के रूप में विवेचित किया गया है। इस विधि के अनुसार दीक्षा के पूर्वदिन भोजन के समय भोजन आदि के तिरस्कार की विधि करे। फिर आहार करके चैत्यालय में आए । तदनन्तर व्रतप्रत्यारव्यान-प्रतिष्ठापन के निमित्त सिद्धभक्ति और योगिभक्ति का पाठ करे तथा गुरु के समीप उपवास का प्रत्याख्यान करे। फिर आचार्यभक्ति, शान्ति एवं समाधि भक्ति का पाठ करके गुरु को प्रमाण करे। दीक्षादान के अवसर पर दीक्षादाता यथाशक्ति शांतिकर्म एवं गणधरवलय का पूजन करे। फिर दीक्षादाता दीक्षित होने वाले को स्नानादि करवाकर यथायोग्य अलंकार से युक्त करके महामहोत्सव पूर्वक चैत्य में ले जाए। वहाँ दीक्षार्थी देव, शास्त्र एवं गुरु की पूजा
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आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय-बीसवाँ, पृ. ७६, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२. ** हुम्बुज श्रमण भक्तिसंग्रह, पृ. ४६० - ४६६, श्रीसंतकुमार खण्डाका, खण्डाका जैन ज्वैलर्स, हल्दियों का रास्ता, जौहरी बाजार, जयपुर.
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