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वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
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वर्धमानसूरि के अनुसार " क्षुल्लक गुरु की आज्ञा से मुनि की तरह धर्मोपदेश देते हुए तीन वर्ष की अवधि तक विचरण करता है तथा संयम की यथावत् परिपालना करने पर तीन वर्ष पश्चात् दीक्षा ग्रहण करता है, किन्तु यदि वह व्रतों का सम्यक् प्रकार से परिपालन नहीं कर पाता है, तो वह पुनः गृहस्थजीवन को स्वीकार कर सकता है। दिगम्बर - परम्परा में क्षुल्लक दीक्षा आजीवन हेतु ही होती है, अतः उसमें उसे पुनः गृहस्थ होने की कोई अनुमति नहीं है। उपसंहार
तुलनात्मक अध्ययन करने के पश्चात् जब हम इस संस्कार की उपादेयता एवं आवश्यकता को लेकर समीक्षात्मक अध्ययन करते हैं, तो हमारे सामने कई महत्वपूर्ण तथ्य उपस्थित होते है। वर्धमानसूरि ने स्वयं अपनी कृति में इस बात का उल्लेख किया है कि “यति आचार अत्यन्त दुष्कर है।” यह क्षुल्लक दीक्षा - संस्कार वस्तुतः मुनिजीवन ग्रहण करने की पूर्व भूमिकारूप है। तीन वर्ष की प्राथमिक प्रशिक्षण अवधि में उससे इन पंच महाव्रतों का पालन करवाकर उसे व्रतों में स्थिर किया जाता है, ताकि वह प्रव्रज्या एवं उपस्थापना के पश्चात् भी उनका सम्यक् रूप से परिपालन कर सके, क्योंकि पूर्व प्रशिक्षण के बिना ही यदि उसे सीधा महाव्रतों का आरोपण कर दिया जाए और वह उनका सम्यक् परिपालन न करे या गृहीत नियम का त्याग कर दे, तो वह उसके लिए तथा जिनशासन के लिए अपयश का कारण बनता है । वर्धमानसूरि ने भी इस बात को स्वीकार करते हुए व्यवहार परमार्थ प्रकरण में कहा कि साधक यदि दीक्षा ग्रहण करके उन व्रतों का आचरण न करे, तो वह उसके लिए पापकारी एवं अपयश को प्रदान करने वाला होता है, अतः क्षुल्लकव्रत में मुनिदीक्षा पालन करने की उसकी योग्यता का परीक्षण किया जाता हैं।
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वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यह संस्कार अत्यन्त महत्त्पूर्ण है। आज हम देखते हैं कि साधक को बिना पूर्व प्रशिक्षण के यूँ ही दीक्षा दे दी जाती है। साथ में रखकर उसका परीक्षण भी नहीं किया जाता, जिसका परिणाम यह होता है कि कितने ही साधक भावावेश में बिना सोचे-समझे, बिना किसी पूर्व प्रशिक्षण के दीक्षा तो ले लेते हैं, किन्तु बाद में उनका सम्यक् प्रकार से निर्वाह न करने के कारण उन व्रतों की अवहेलना करते हैं या उनका त्याग कर देते है, जिससे समाज में उनका तो अपयश होता ही है, साथ ही देव गुरु एवं धर्मरूप जिनशासन भी कंलकित होता है।
*६८ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय-अठारहवाँ, पृ. ७२, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२. ४६६ 'आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, पृ. ३६१, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२.
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