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साध्वी मोक्षरत्ना श्री
सिद्ध, योगी, शांति भक्ति आदि का पाठ करके मंत्रपूर्वक भावी क्षुल्लक के सिर पर गंधोदक वगैरह डालने की क्रिया करते है । तत्पश्चात् उसे क्षुल्लकव्रत ग्रहण का पाठ तीन बार उच्चारित करवाया जाता है। इस पाठ में उसे श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का ही उच्चारण करवाया जाता है । तदनन्तर उसे मंत्रपूर्वक संयमादि
उपकरण प्रदान किए जाते हैं। ४६५ वर्धमानसूरि के अनुसार श्रावक को इस संस्कार में अवधि विशेष हेतु दो करण एवं तीन योग से महाव्रतों एवं रात्रिभोजन त्याग करवाया जाता है। दिगम्बर- परम्परा में इन व्रतों का पृथक् से ग्रहण नहीं करवाया जाता है। वहाँ श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं के ग्रहण करने का ही उल्लेख मिलता है।
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क्षुल्लकत्व - दीक्षा के पश्चात् क्षुल्लक को जिन नियमों के परिपालनार्थ उपदेश दिया जाता है, वर्धमानसूरि ने उनका भी वर्णन किया है। क्षुल्लक किस प्रकार से विचरण करे, किस प्रकार से तथा कैसे आहार को ग्रहण करे, इत्यादि । इस प्रकार के व्यवहारिक ज्ञान का संक्षिप्त विवेचन आचारदिनकर में मिलता है। दिगम्बर-परम्परा के सागारधर्मामृत ग्रन्थ में इसका विस्तार से वर्णन किया गया है। जैसे - क्षुल्लक (उत्कृष्ट श्रावक) जन्तुओं को बाधा नहीं उत्पन्न करने वाले-ऐसे कोमल वस्त्रादि द्वारा मार्जनादि करे, चारों पर्व में अष्टमी, चतुर्दशी के दिन चार प्रकार के आहार का त्यागरूप उपवास करे। जैसे मुनि पिच्छी रखते हैं, उससे जीवों की विराधना का बचाव होता है, उसी प्रकार क्षुल्लक बैठते समय, सोते समय या पुस्तकादि के उठाते - रखते समय मृदु वस्त्र से जीवों की रक्षा करे। इसी प्रकार क्षुल्लक किस प्रकार से कैसे एवं किन आचारों का पालन करते हुए भिक्षा ग्रहण करे । इसका भी उसमें विस्तृत उल्लेख मिलता है। ज्ञातव्य है कि वर्तमान में क्षुल्लक मोर की पिच्छी रखते हैं, किन्तु पं. आशाधर ने इसके स्थान पर वस्त्र से ही प्रमार्जन करने का उल्लेख किया है।
वर्धमानसूरि के अनुसार क्षुल्लक व्रतारोपण संस्कार को छोड़कर गृहस्थ के शेष संस्कार करवा सकता है, साथ ही वह शान्तिक- पौष्टिककर्म एवं प्रतिष्ठा आदि क्रियाएँ भी करवा सकता है। किन्तु दिगम्बर - परम्परा में क्षुल्लक को यह सब करने की अनुज्ञा नहीं होती है। उसमें तो ये सब क्रियाएँ प्रायः जैन ब्राह्मणों द्वारा करवाई जाती है। क्षुल्लक का इन क्रियाओं से कोई सम्बन्ध नहीं होता है ।
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हुम्बुज श्रमण भक्तिसंग्रह, पृ. ४६७ - ४६८, श्रीसंतकुमार खण्डाका, खण्डाका जैन ज्वैलर्स, हल्दियों का रास्ता, जयपुर.
आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय-अठारहवाँ, पृ. ७३, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२. सागार धर्मामृत, अनु. आर्यिका सुपार्श्वमति जी, अध्याय-सातवाँ, पृ. ३६८, भारतवर्षीय अनेकांत विद्वत् परिषद, तृतीय संस्करण १६६५.
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