________________
230
साध्वी मोक्षरत्ना श्री
इस प्रकार वर्धमानसूरि द्वारा निर्दिष्ट यह संस्कार साधक को महाव्रतों में स्थिर रहने हेतु अत्यन्त उपयोगी है।
प्रव्रज्या संस्कार विधि प्रव्रज्याविधि का स्वरूप
प्रव्रज्या शब्द का तात्पर्य संन्यास ग्रहण करने से है। इस संस्कार के माध्यम से साधक को यावत् जीवन हेतु सामायिकव्रत के पालन की प्रतिज्ञा करवाई जाती है। हरिभद्रसूरि के अनुसार ७० वैराग्य की उत्तम भूमिका को प्राप्त होकर मुमुक्षु व्यक्ति जब अपने सब सम्बन्धियों से क्षमायाचना कर गुरु की शरण में जाकर, सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग कर देता है और ज्ञाता-दृष्टाभाव में रहकर समभाव की साधना करने की प्रतिज्ञा करता है, तो इसे जिनदीक्षा या प्रव्रज्या कहते हैं।
दीक्षा मुण्डनसंस्कार को भी कहते हैं, किन्तु वह मुण्डन चित्त का होता हैं- ऐसा जानना चाहिए। चित्तमुण्डन से तात्पर्य है- मिथ्यात्व, क्रोध आदि दोषों को दूर करना, क्योंकि चंचल चित्तवाला व्यक्ति दीक्षा का अधिकारी नहीं होता है। श्वेताम्बर-परम्परा में इसे छोटी दीक्षा भी कहते है। वर्धमानसूरि के अनुसार क्षुल्लकत्व के बाद साधक को इस संस्कार से संस्कारित किया जाता है। दिगम्बर-परम्परा में भी यह संस्कार किया जाता है। वहाँ इसे दीक्षाद्य नामक क्रिया के रूप में निर्दिष्ट किया गया है। ज्ञातव्य है कि दिगम्बर-परम्परा में गृहत्याग एवं दीक्षाद्य- इन दोनों को पृथक्-पृथक क्रिया माना है, किन्तु वर्धमानसूरि द्वारा वर्णित संस्कार में दोनों ही क्रियाओं का समावेश किया गया है। वैदिक-परम्परा में भी संन्यास-ग्रहण का विधान है, किन्तु वहाँ इसे संस्कार के रूप में नहीं माना है, क्योंकि वैदिक-परम्परा प्रवृति-प्रधान होने से गृहस्थजीवन को ही महत्व देती है। इस प्रकार तीनों ही परम्पराओं में यह विधि की जाती है।
वर्धमानसरि के अनुसार इस संस्कार का प्रयोजन साधक को सावध व्यापार से विरत करना है। इस संस्कार के माध्यम से व्यक्ति यावत् जीवन उच्चकोटि की समभाव की साधना कर सकता है, पापकारी प्रवृत्तियों से विराम ले सकता है, क्योंकि जब तक व्यक्ति इस संस्कार से संस्कारित नहीं होता है, तब तक उसकी सांसारिक प्रवृत्तियाँ क्रियाशील ही रहती है। ज्ञानियों ने इन सांसारिक
४७० पंचाशक प्रकरण, अनु- डॉ. दीनानाथ शर्मा, अध्याय-२, पृ.-२१ पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, प्रथम
संस्करण १६६७. ४७' आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, पृ.-३६१, निर्णयसागार मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org