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वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
(दीक्षाद्यविधि), उपस्थापनाविधि (जिनरूपताक्रिया), वाचनानुज्ञाविधि ( गणोपग्रहणविधि), आचार्यपद स्थापन विधि (स्वगुरुस्थानावाप्ति-क्रिया),
अंतिमसंलेखना - विधि
( योगनिर्वाणसंप्राप्ति - क्रिया एवं योगनिर्वाणसाधन-क्रिया)।
यह तो इस अध्याय की विषयवस्तु की सामान्य झलक है, इसका विस्तृत विवरण हम अग्रिम पृष्ठों में करेंगे।
ब्रह्मचर्यव्रत-संस्कार
ब्रह्मचर्यव्रत - संस्कार का स्वरूप
ब्रह्मचर्य शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है- ब्रह्मचर्यं ब्रह्म का अर्थ हैआत्मा या परमतत्त्व तथा चर्य का अर्थ है - रमण करना; अतः आत्मा में रमण करने को ब्रह्मचर्य कहते है। व्यक्ति अपनी आत्मा में रमण तभी कर सकता है, जब उसका मन बाहूह्य पौद्गलिक वस्तुओं से विरक्त हो, क्योंकि उसके अभाव में व्यक्ति का मन पुनः पुनः स्वचेतना से हटकर बाह्य पौद्गलिक वस्तुओं की तरफ दौड़ लगाता है। विद्वानों ने ब्रह्मचर्य शब्द का तात्पर्य मैथुन से विरक्ति भी माना है। यहाँ ग्रन्थकार ने इसी अर्थ में इस संस्कार को व्याख्यायित किया है। दिगम्बर- परम्परा एवं वैदिक परम्परा में भी ब्रह्मचर्यव्रत को स्वीकृत तो किया गया है, किन्तु इसे संस्कार के रूप में नहीं माना है, जबकि वर्धमानसूरि ने इसे संस्कार के रूप में माना है।
वर्धमानसूरि के अनुसार इस संस्कार का प्रयोजन क्षुल्लकत्व की प्राप्ति से पूर्व की भूमिका का निर्वाह करना है, अर्थात् क्षुल्लकत्व प्राप्त करने से पूर्व उसे इस संस्कार के माध्यम से प्रशिक्षित किया जाता है, क्योंकि यति आचार का पालन करना अत्यन्त दुष्कर कार्य है और उसमें भी सर्वाधिक दुष्कार कार्य ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करना है; अतः इस संस्कार के माध्यम से उसका प्रशिक्षण एवं परीक्षण
किया जाता है।
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वर्धमानसूरि के अनुसार यह संस्कार कब किया जाना चाहिए, इस सम्बन्ध में हमें कोई निर्देश नहीं मिलते हैं, क्योंकि जैन- परम्परा में प्रायः ब्रह्मचर्यव्रत को ग्रहण करने के लिए किसी आयु विशेष का निर्देश नहीं मिलता है। दिगम्बर-परम्परा में ब्रह्मचारियों के अनेक प्रकार बताएं हैं, ' किन्तु आयु के सम्बन्ध में वहाँ भी कोई उल्लेख नहीं मिलता है। वैदिक परम्परा में प्रथम, तृतीय
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आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय-सत्रहवाँ, पृ. ७१, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२. सागारधर्मामृत, अनु. आर्यिका सुपार्श्वमतिजी, अध्याय- सातवाँ, पृ. ३७६, भारतवर्षीय अनेकांत विद्वत् परिषद, तृतीय संस्करण १६६५.
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