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साध्वी मोक्षरत्ना श्री एवं चतुर्थ आश्रम में इस व्रत का ग्रहण किया जाता है, इस अपेक्षा से वह जीवन के तीन भागों में इस व्रत को ग्रहण करता है। वैदिक-परम्परा में भी उपकुर्वाण और नैष्टिक ब्रह्मचारी के रूप में ब्रह्मचारी के दो प्रकारों की चर्चा मिलती है।०४६ संस्कार का कर्ता
आचारदिनकर ग्रन्थ के अनुसार यह संस्कार यतिगुरु द्वारा करवाया जाता है। दिगम्बर-परम्परा में भी ब्रह्मचर्यव्रत का ग्रहण सामान्यतः मुनि या भट्टारक द्वारा ही करवाया जाता है। वैदिक-परम्परा में ब्रह्मचर्यव्रत का ग्रहण किसके द्वारा करवाया जाता है, इसका कोई उल्लेख हमें नहीं मिलता है।
वर्धमानसूरि ने आचारदिनकर में इस संस्कार की निम्न विधि प्रस्तुत की
ब्रह्मचर्यव्रत-ग्रहण-विधि
___ इस विधि में सर्वप्रथम वर्धमानसूरि ने यति-आचार की दुष्करता का कथन किया है। तत्पश्चात् सभी व्रतों में ब्रह्मचर्यव्रत को अत्यन्त दुष्कर बताते हुए कहा गया है कि जिस तरह इन्द्रियों में रसनेन्द्रिय, कर्मों में मोहनीयकर्म एंव गुप्ति में मनगुप्ति अत्यन्त कठिन है, उसी प्रकार व्रतों में ब्रह्मचर्यव्रत को पालना दुष्कर कहा गया है। तदनन्तर ब्रह्मचर्यव्रत ग्रहण करने वालों की प्रशंसा की गई है। इसके बाद ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करने का अधिकारी कौन हो सकता है, यह बताया गया है। तत्पश्चात् यह बताया गया है, कि ब्रह्मचर्यव्रत ग्रहण करने का इच्छुक श्रावक सर्वप्रथम शान्तिक-पौष्टिक कर्म, गुरुपूजा एवं संघपूजा करे। तदनन्तर प्रव्रज्या के समान उपर्युक्त मुहूर्त के आने पर मुण्डित सिर एवं शिखासूत्र को धारण किए हुए वह श्रावक महोत्सवपूर्वक गुणों से युक्त यतिगुरु के पास जाए। तदन्तर गुरु नंदीपूर्वक उसे सम्यक्त्व एवं देशविरति सामायिक का आरोपण कराए। फिर गुरु श्रावक को तीन बार नमस्कार मंत्र का उच्चारण करवा कर उसे दो करण तीन योग से सामायिक व्रत का तथा मैथुनत्यागवत का ग्रहण करवाए। तदनन्तर “संसार-सागार से पार होओ " यह कहकर गुरु उसे वासक्षेप दे तथा संघ उसे बधाए। तत्पश्चात् गुरु ब्रह्मचारी को ब्रह्मचर्य को नव वाडों सहित पालन करने का उपदेश दे। इसके साथ ही गुरु ब्रह्मचारी को मौनपूर्वक दोनों समय आवश्यक क्रिया करने तथा तीन वर्ष तक त्रिकाल परमात्मा की पूजा करने का
४४६ धर्मशास्त्र का इतिहास (प्रथम भाग) पांडुरंग वामन काणे, अध्याय- सातवाँ, पृ.-२५२ उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान,
लखनऊ, तृतीय संस्करण १६८०. ४४७ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय-सत्रहवाँ, पृ.-७१, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२.
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