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साध्वी मोक्षरत्ना श्री
वर्धमानसूरि ने आचारदिनकर में इस संस्कार में गृहीत ब्रह्मचर्यव्रत की अवधि तीन वर्ष की बताई है। इन तीन वर्षों की अवधि के परीक्षण में सफल होने पर उसे क्षुल्लक प्रव्रज्या प्रदान की जाती है, अन्यथा वह पुनः गृहस्थधर्म में चला जाता है। इस प्रकार वर्धमानसरि ने इस व्रत की एक अवधि विशेष का निर्देश दिया है। संक्षेप में यहाँ नियत काल हेतु गृहीत ब्रह्मचर्यव्रत की ही चर्चा की गई है। उसके आगे की प्रक्रियाएँ उस नियत काल के परिपूर्ण होने पर ही होती है।
वर्धमानसरि ने इस संस्कार की विधि बताने से पूर्व यति-आचार के स्वरूप को स्पष्ट किया है तथा उसकी दुष्करता का वर्णन किया है। जैसे- यतिधर्म स्वादरहित बालुका के कवल को खाने के समान है, तलवार की धार पर चलने के समान है, इत्यादि। इसके साथ ही ग्रन्थकार ने ब्रह्मचर्यव्रत की महत्ता को स्पष्ट करते हुए इस सम्बन्ध में आगमों एवं अन्य मतों के सन्दर्भ दिए है। वैदिक-परम्परा में भी इस व्रत के महत्व को स्वीकार करते हुए इसे दुष्कर कहा गया है, इस बात का उल्लेख भी वर्धमानसूरि ने किया है।
___ वर्धमानसूरि के अनुसार शुद्ध सम्यक्त्वपूर्वक द्वादशव्रत-आचार का पालन करने वाला, चैत्य एवं जिनबिम्ब का निर्माण कराने वाला, जिनागम एवं चतुर्विध संघ की सेवा हेतु प्रचुर धन का व्यय करने वाला, भोग से विरक्त निराकांक्षी, उत्कृष्ट वैराग्यभावना से वासित, गृहस्थजीवन में सम्पूर्ण मनोरथों को धारण करने वाला, शान्त रस में निमग्न, कुल की वृद्धाओं, पुत्र, पत्नी अथवा स्वामी आदि द्वारा अनुज्ञा प्राप्त तथा प्रव्रज्या ग्रहण करने के लिए उत्सुक श्रावक ही ब्रह्मचर्यव्रत को धारण करने के योग्य होता है।
दिगम्बर तथा वैदिक-परम्पराओं के ग्रन्थों में इस ब्रह्मचर्यव्रत के धारण का अधिकारी कौन हो सकता है, इस सम्बन्ध में कोई विशेष निर्देश हमें देखने को नहीं मिलते हैं।
वर्धमानसूरि के अनुसार ब्रह्मचर्यव्रत धारण करने से पूर्व श्रावक को शान्तिक- पौष्टिककर्म, गुरुपूजा एवं संघपूजा करनी चाहिए। इसके बाद वह प्रव्रज्या हेतु उपयुक्त मुहूर्त के आने पर मुण्डित सिर एवं शिखासूत्र को धारण करके गुरु के समीप जाकर नंदीक्रियापूर्वक देशविरतिसामायिक, सम्यक्त्वसामायिक एवं ब्रह्मचर्यव्रत का उच्चारण करता है। दिगम्बर एवं वैदिक-परम्परा में इस संस्कार का पृथक् से कोई वर्णन नहीं होने के कारण इसके विधि -विधान का कोई उल्लेख
४४° आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय-सत्रहवाँ, पृ.-७१, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२.
" आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय-सत्रहवाँ, पृ.-७१, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२.
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