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वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
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वर्धमानसूरि ने अग्निसंस्कार के पश्चात् चिता की भस्म एवं अस्थियों का विसर्जन एवं शोक का निवारण किस प्रकार करें - इसका भी उल्लेख किया है, साथ ही उन्होंने मृतक के स्नान कराने के समय किन-किन नक्षत्रों का त्याग करें तथा किन-किन वारों में प्रेत सम्बन्धी क्रिया करें - इसका भी उल्लेख किया है। वैदिक-परम्परा में भी चिता की भस्म एवं अस्थियों के विसर्जन का उल्लेख मिलता है, परन्तु पूर्ववर्ती वैदिक-ग्रन्थों में इस सम्बन्ध में कुछ अलग ही उल्लेख मिलते हैं। भस्म पर दूध और जल का सेचन करके अस्थियों को उदुम्बर वृक्ष या गूलर के डण्डे से भस्म से पृथक् किया जाता था तथा उस समय मंत्रोच्चार किए जाते थे। भस्म को एकत्रित करके दक्षिण दिशा में फेंक दिया जाता था तथा अस्थियाँ विधि-विधानपूर्वक जल या गड्ढ़े में डाल दी जाती थीं। ४३६
दिगम्बर-परम्परा के आदिपुराण में गृहस्थ के अन्त्यसंस्कार सम्बन्धी उल्लेख नहीं मिलता है, परन्तु दिगम्बर-परम्परा के अन्य ग्रन्थों जैसे भगवतीआराधना आदि में गृहस्थ के अन्तिम समय की आराधना का वर्णन मिलता है। इसी प्रकार सागारधर्मामृत में भी श्रावक के अन्तिम समय की आराधनारूप संलेखना का वर्णन बहुत विस्तार से मिलता है। वर्धमानसूरि की भाँति ही इसमें आशाधर जी ने संलेखना ग्रहण करने के लिए स्थान कैसा हो, वहाँ किस प्रकार क्रमशः कषायों एवं आहार का त्याग करते हुए शरीर का त्याग करें, आदि का बहुत विस्तार से वर्णन किया गया है। दिगम्बर-परम्परा में कुछ विशेष उल्लेख मिलते हैं, जैसे - श्रावक को समाधिमरण के लिए शरीर को क्रमशः कृश करना चाहिए, क्योंकि अन्न से पुष्ट और वात, पित्त, कफादि के दोषों से ग्रस्त शरीर समाधिमरण में सहायक नहीं होता है, इसलिए समाधिमरण की इच्छा रखने वाले व्यक्ति को सर्वप्रथम शास्त्रोक्तविधि से काय और कषायों को कुश करना चाहिए तथा जठराशय के संचित मल को योग्य विरेचन आदि द्वारा शुद्ध करना चाहिए। यद्यपि वर्धमानसूरि ने भी कषायों को कृश करने के लिए मैत्रीभावना से आत्मा को भावित करने को कहा है, परन्तु जिस प्रकार दिगम्बर-परम्परा में जठराशय के मल को अपेक्षित विरेचन आदि द्वारा शुद्ध करने का निर्देश दिया है, उस प्रकार का निर्देश आचारदिनकर में नहीं मिलता। आदिपुराण में दो प्रकार की मृत्यु का उल्लेख है - शरीरमरण, अर्थात् आयु के अन्त में शरीरत्याग और संस्कारमरण, अर्थात् व्रती पुरुषों द्वारा पापों का परित्याग। शरीरमरण में ही अन्त्येष्टि संस्कार की व्यवस्था दी गई है। शरीर की अन्त्येष्टि के भी अनेक रूप हैं, जैसे - अग्निदाह, शव को जमीन में गाड़ना, जल में प्रवाहित करना, अथवा पशु-पक्षियों
२६ हिन्दू संस्कार, डॉ. राजबली पाण्डेय, अध्याय-दशम, पृ.-३२८, चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी, पांचवाँ संस्करण : १९६५
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