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वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
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बालक को स्नान करवाकर उसे सुसज्जित किया जाता है और उसके बाद विनायक, सरस्वती, बृहस्पति और गृहदेवता आदि की पूजा जाती है।२६३
श्वेताम्बर आचार्य वर्धमानसरि के अनुसार बालक को सारस्वतमंत्र देने के बाद वाहन द्वारा उपाश्रय में लेकर जाते हैं और वहाँ मंडलीपूजा एवं साधु भगवंत से वासक्षेप डलवाते हैं। फिर पाठशाला लेकर जाते हैं। पाठशाला में जाकर शिष्य गुरु के समक्ष बैठकर श्लोक के माध्यम से गुरु कि स्तुति करता है, फिर गुरु उसको हितशिक्षा देते हैं। दिगम्बर एवं वैदिक-परम्परा में इस प्रकार का कोई उल्लेख हमें नहीं मिलता है।
वर्धमानसूरि ने शिष्य को शिक्षा देने के पश्चात् गुरु को दक्षिणा देने का भी उल्लेख किया है।२६४ दिगम्बर-परम्परा में इस सम्बन्ध में कोई उल्लेख हमें देखने को नहीं मिला। वैदिक-परम्परा में दक्षिणा आदि से ब्राह्मणों का सत्कार करने सम्बन्धी निर्देश मिलते हैं।
वर्धमानसूरि के अनुसार२६५ इन सब क्रियाओं को करने के पश्चात् उपाध्याय शिष्य को सर्वप्रथम मातृकापाठ पढ़ाए, अर्थात् स्वर-व्यंजन का ज्ञान कराए - यह प्रथम चरण है। उसके बाद बालक को आगम एवं शास्त्रों का अध्ययन कराए - यह द्वितीय चरण है। वर्धमानसूरि ने किस वर्ण के व्यक्ति को पहले किस शास्त्र का अध्ययन कराए - इसका भी निर्देश दिया है, जैसे - विप्र को पहले आर्यवेद, उसके बाद षट्अंग एवं उसके बाद धर्मशास्त्र एवं पुराण आदि पढ़ाए। वर्धमानसूरि ने इस संस्कार हेतु अलग से व्रतों का विधान न करके उपनयन-संस्कार के अन्तर्गत ही व्रतादेश किया है, क्योंकि उपनयन-संस्कार के पश्चात् ही विद्यारंभ-संस्कार किया जाता था, अतः अलग से व्रतादेश नहीं किए गए हैं। उपनयन-संस्कार के व्रतों की अवधि यावज्जीवन हेतु बताई गई है। दिगम्बर-परम्परा में इस संस्कार के अन्तर्गत मात्र प्रथम चरण को ही शामिल किया गया है। इस संस्कार में बालक को अक्षरज्ञान ही करवाया जाता है। इसके द्वितीय चरण को उन्होंने व्रतचर्या६६ नामक क्रिया के रूप में विवेचित किया है
२६३ देखे - हिन्दू संस्कार, डॉ. राजबली पाण्डेय, अध्याय-७ (द्वितीय परिच्छेद), पृ.-१४१, चौखम्बा विद्याभवन,
वाराणसी, पांचवाँ संस्करण : १६६५ २६४ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत (प्रथम विभाग), उदय-तेरहवाँ, पृ.-३०, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, सन्
૧૬૨૨ ३६४ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत (प्रथम विभाग), उदय-तेरहवाँ, पृ.-३१, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, सन्
१६२२ ३६६ आदिपुराण, जिनसेनाचार्यकृत, अनुवादक - डॉ. पन्नालाल जैन, पर्व-अड़तीसवाँ, पृ.-२५०, भारतीय ज्ञानपीठ,
सातवाँ संस्करण : २०००
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