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साध्वी मोक्षरला श्री का उल्लेख हमें वहाँ नहीं मिलता है। वर्धमानसरि ने४२४ इस संस्कार के पूर्व की भूमिका के रूप में यह उल्लेख किया है कि व्रतारोपण कराने वाले निर्ग्रन्थगुरु कैसे हों और जिस व्यक्ति को व्रतारोपण किया जा रहा है, वह किन-किन योग्यता का धारक हो। व्रतारोपण करने योग्य श्रावक २१ गुणों से युक्त होना चाहिए, आचार्य हरिभद्र ने श्रावकधर्मविधिप्रकरण २५ में एवं आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में यही बात कुछ विस्तृत रूप में कही २६ है। दिगम्बर-परम्परा में जिसने समस्त विद्याओं का अध्ययन कर लिया है - ऐसे उस ब्रह्मचारी की व्रतावतरण क्रिया होती है। आशाधर आदि ने इस सम्बन्ध में श्रावकधर्म के अधिकारी के १४ गुणों का भी उल्लेख किया है। २०
वर्धमानसरि ने इस संस्कार की क्रियाविधि का बहुत विस्तार से वर्णन किया है। उन्होंने किन नक्षत्रों में, किस दिन (वार) एवं किस मुहूर्त में यह संस्कार करें, इसका भी उल्लेख किया है, जबकि दिगम्बर-परम्परा के ग्रन्थों में व्रतावतरण की क्रिया का वर्णन बहुत संक्षिप्त रूप में किया गया है। साथ ही वर्धमानसूरि की भाँति दिगम्बर जैनाचार्यों ने इस बात का भी कोई उल्लेख नहीं किया है, कि यह संस्कार कब और किस मुहूर्त में करना चाहिए। वर्धमानसूरि ने जिस प्रकार व्रतारोपण की सम्पूर्ण क्रियाविधि का विस्तारपूर्वक उल्लेख किया है, उस प्रकार इसकी क्रिया-विधि का विस्तारपूर्वक उल्लेख दिगम्बर-परम्परा के ग्रन्थों में हमें देखने को नहीं मिला। आदिपुराण में मात्र इतना उल्लेख अवश्य मिलता है कि ब्रह्मचारी के व्रतारोपण की यह क्रिया निर्ग्रन्थगुरु की साक्षी में जिनेन्द्र भगवान् की पूजा तथा द्विजों का सत्कार करने के पश्चात् की जाती है। गुरु की आज्ञा से वह ब्रह्मचारी वस्त्र, आभूषण और माला आदि को धारण करता है। यदि वह शास्त्रोपजीवी, अर्थात् क्षत्रिय वर्ग का है, तो वह अपनी आजीविका एवं प्रजा की रक्षा के लिए शस्त्र भी धारण कर सकता है, या केवल शोभा के लिए भी शस्त्र ग्रहण कर सकता है एवं जब तक उसके आगे की क्रिया नहीं होती, तब तक वह काम-परित्याग रूप ब्रह्मव्रत का पालन करता है तथा यावज्जीवन के लिए आठ
४२४ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत (प्रथम विभाग), उदय-पन्द्रहवाँ, पृ.-४२ से ४३, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे,
सन् १६२२ ५ श्रावकधर्मविधिप्रकरण, डॉ. सुरेन्द्र बोथरा, गाथा न.-३ से ११, प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर, प्रथम संस्करण
: २००१. ४२६ योगशास्त्र, अनु.- विजय केशरसूरीश्वर, अध्याय-द्वितीय प्रकाश, पृ.-६६-१००, मुक्तिचंद्र श्रमण आराधना,
गिरिविहार, पालीताणा, छठवी आवृत्तिा * सागारथर्मामृत, अनु.-आर्या सुपार्श्वमति जी, अध्याय-प्रथम, पृ.-१७, भारत वर्षीय अनेकांत विद्वत् परिषद्, तृतीय संस्करण, सन् १९६५
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