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वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
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उपधानविधि से श्रुतसामायिक का आरोपण किया जाता है। मूलग्रन्थ में सात उपधान बताए गए हैं, किन्तु इनमें से - १. परमेष्ठी मंत्र का २. ईर्यापथिकी का ३. शक्रस्तव का ४. अर्हत्चैत्यस्तव का ५. चतुर्विंशतिस्तव का एवं ६. श्रुतस्तव का ही उपधान होता है और उन्हीं की विधि मूलग्रन्थ में दी गई है। सिद्धस्तव की प्रथम तीन गाथाओं की वाचना उपधान के बिना भी होती है, शेष गाथाएँ आधुनिक हैं, अतः उनके हेतु उपधान आवश्यक नहीं है। तत्पश्चात् छहों उपधानों की विस्तृत विधि का उल्लेख हुआ है, अर्थात् कौनसे उपधान में कितने दिनों तक कौनसा तप करें तथा किस प्रकार से उपधान से सम्बन्धित सूत्र की वाचना दें - इसका विवेचन किया गया है। प्रसंगवशात् मूलग्रन्थ में मानदेवसूरि विरचित उपधान सम्बन्धी प्रकरण को भी उद्धृत किया गया है। तत्पश्चात् उद्यापनरूप मालारोपणविधि का विवरण प्रस्तुत किया गया है। तदनन्तर इसी उदय में प्रसंगानुसार श्रावक की दिनचर्या का वर्णन किया गया है। रात्रि में दो मुहूर्त शेष रहने पर उपासक को उठ जाना चाहिए। तत्पश्चात् नित्यकर्म से निवृत्त होकर आसन पर बैठकर परमेष्ठीमंत्र का जाप करे, स्तोत्र पाठ युक्त चैत्यवंदन करे तथा प्रतिक्रमणादि करे। तत्पश्चात् उषाकाल में स्नान करके एवं शुद्ध वस्त्रों को धारण कर परमात्मा की पूजा करे। तदनन्तर मूलग्रन्थ में अर्हत्कल्पानुसार परमात्मपूजा-विधि तथा लघुस्नात्र-विधि का वर्णन हुआ है। तत्पश्चात् श्रावक देवगृह में जाकर स्तोत्र एवं शक्रस्तव आदि द्वारा परमात्मा की स्तुति कर प्रत्याख्यान ग्रहण करे। फिर उपाश्रय में जाकर सुसाधुओं को वंदना करे तथा धर्मदेशना सुने। तत्पश्चात् गुरु को नमस्कार कर न्यायनीतिपूर्वक धन का अर्जन करे। तत्पश्चात् गृहचैत्य में परमात्मा की पूजा करे तथा साधुओं को आहार वगैरह का दान दे। आगत अतिथियों का भी सत्कार करे तथा दीनों को संतुष्ट करके व्रत एवं कुल के लिए उचित हो - ऐसा आहार करे . . इत्यादि। इस प्रकार श्रावक की दिनचर्या सम्बन्धी विस्तृत चर्चा मूलग्रन्थ में हुई है। स्थानाभाव के कारण उसका हम यहाँ उल्लेख नहीं कर रहे हैं। इससे सम्बन्धित विस्तृत जानकारी हेतु मेरे द्वारा किए गए आचारदिनकर (प्रथम खण्ड) के पन्द्रहवें उदय के अनुवाद को देखा जा सकता
तुलनात्मक विवेचन -
श्वेताम्बर-परम्परा के अर्द्धमागधी आगमग्रन्थ उपासकदशा में इस संस्कार का आंशिक उल्लेख मिलता है:२३, जैसे - बारह अणुव्रतों का ग्रहण करना, श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएँ धारण करना आदि। किन्तु इस संस्कार सम्बन्धी विधि-विधानों
४२३ उपासकदशा, सू.-१/१३-५७, १/७०-७१ सं.-मधुकरमुनि, ब्यावर ।
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