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वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
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स्नात्रविधि, नवग्रह एवं क्षेत्रपाल की पूजाविधि आदि का भी बहुत सुन्दर विवेचन इसी व्रतारोपण-संस्कार की विधि में किया गया है। इतना विस्तृत उल्लेख दिगम्बर-परम्परा के आदिपुराण में हमें नहीं मिलता है।
श्वेताम्बर-परम्परा के आगमग्रन्थ उपासकदशांग में भी श्रावक द्वारा द्वादश व्रतों को धारण करने, ग्यारह प्रतिमाओं के वहन करने के उल्लेख तो मिलते हैं, परन्तु वर्धमानसूरि ने जिस क्रियाविधि का उल्लेख किया है, उस प्रकार की सम्पूर्ण क्रियाविधि का उल्लेख हमें आगमग्रन्थों में नहीं मिलता है। व्रतारोपण में वर्णित विभिन्न विषयों की विधि का वर्णन श्रीजिनप्रभसूरिकृत “विधिमार्गप्रपा" में भी मिलता है। यह बात भिन्न है कि गुरु-परम्परा के कारण कहीं-कहीं आंशिक भिन्नता है, उसमें भी इसकी विधि विस्तार से मिलती है। दिगम्बर-परम्परा में इतना विशेष है कि व्रतावतरण के समय ग्रहण किए गए अणुव्रतों तथा गुणव्रतों का काल यावज्जीवन होता है, जबकि वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर के अनुसार इन व्रतों का काल मासिक, षट्मासिक, वार्षिक तथा यावत् जीवन भी हो सकता है। व्रतग्रहण करने के समय कुछ कर्तव्यों का भी निर्देश आचारदिनकर में किया गया है, जैसे - उस दिन साधर्मिक वात्सल्य करे, गुरु महाराज को चतुर्विध आहार आदि दान करे, संघपूजा करे, व्रतग्रहण करने वाला श्रावक उस दिन एकासना या आयम्बिल तप करे, आदि।
वैदिक-परम्परा में वेदव्रतों के सम्बन्ध में धर्मशास्त्रों में जो उल्लेख मिलते हैं, उनका विवेचन आचार्य पांडुरंग वामन काणे ने अपने धर्मशास्त्र के इतिहास में इस रूप में किया है।०३०
“आश्वलायनस्मृति (पद्य) के अनुसार चार वेदव्रत ये हैं - १. महानाम्नीव्रत २. महाव्रत ३. उपनिषद्-व्रत एवं ४. गोदान। आश्वलायनगृह्यसूत्र के अनुसार व्रतों में चौलकर्म से परिदान तक के सभी कृत्य, जो उपनयन के समय किए जाते हैं, प्रत्येक व्रत के समय दुहराए जाते हैं। शांखायनगृह्यसूत्र के अनुसार पवित्र गायत्री से दीक्षित होने के उपरान्त चार व्रत किए जाते हैं, यथा-शुक्रिय, शाक्वर, वातिक और औपनिषद्क। इनमें शुक्रियव्रत तीन या बारह दिन या एक वर्ष तक चलता था तथा अन्य तीन कम से कम वर्ष-वर्ष भर किए जाते थे। अन्तिम तीन व्रतों के आरम्भ में अलग-अलग उपनयन किया जाता था तथा इसके उपरान्त उद्दीक्षणिका नामक कृत्य किया जाता था। उद्दीक्षणिका का
४२६ विधिमार्गप्रपा, जिनप्रभसूरिकृत, पृ.-१ से १६, प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर, पुनर्मुद्रण : २००० ४३° धर्मशास्त्र का इतिहास (प्रथम भाग) पांडुरंग वामन काणे, अध्याय-७, पृ.-२५१, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान,
लखनऊ, तृतीय संस्करण : १६८०
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