________________
188
साध्वी मोक्षरत्ना श्री
तथा इस संस्कार में विशेष व्रतों का विधान भी किया गया है। जैसे - स्थूलहिंसा का त्याग करना चाहिए, ब्रह्मचारी को वृक्ष की दातौन नहीं करनी चाहिए, पान नहीं खाना चाहिए, इत्यादि; परन्तु इनकी अवधि विद्याध्ययन के पूर्ण होने तक ही कही गई है। इसके पश्चात् ब्रह्मचारी को मूलगुण धारण करने का निर्देश दिया गया है । दिगम्बर - परम्परा में भी सर्वप्रथम कौनसा ग्रन्थ पढ़े - इसका उल्लेख मिलता है । ३७ वैदिक - परम्परा में दोनों चरणों का समावेश इसी संस्कार में किया गया है तथा वैदिक-परम्परा के ग्रन्थों में इस संस्कार का बहुत विस्तार से वर्णन किया गया हैं ।
३६८
इस संस्कार के अन्त में वर्धमानसूरि ने निर्ग्रन्थ मुनियों को आहार, वस्त्र आदि का दान देने का भी निर्देश किया है। दिगम्बर एवं वैदिक परम्परा में इस सम्बन्ध में कोई स्पष्ट निर्देश नहीं मिलता है।
वर्धमानसूरि ने जिस प्रकार इस संस्कार के लिए आवश्यक सामग्री का निर्देश दिया है, उस प्रकार का कोई उल्लेख दिगम्बर एवं वैदिक - परम्परा के ग्रन्थों में हमें देखने को नहीं मिलता है।
उपसंहार
इस प्रकार तुलनात्मक अध्ययन करने के पश्चात् जब हम इस संस्कार की आवश्यकता के सम्बन्ध में विचार करते है। तो पाते हैं कि यह संस्कार वास्तव में अतिमहत्वपूर्ण है, क्योंकि किसी भी प्रगतिशील सभ्यता के लिए शिक्षा आवश्यक है। शिक्षा के बिना प्रगतिशील मानव समाज की कल्पना भी निरर्थक है और शिक्षा से सम्बन्धित होने के कारण इस संस्कार की महत्ता सुस्पष्ट है।
कहा गया है - "सुशिक्षित व्यक्ति ही विद्वानों की सभा में हंस के समान शोभायमान होता है।” वही समाज में प्रतिष्ठा, यश और कीर्ति को प्राप्त करता है और ऐसे सुशिक्षित व्यक्तियों को समाज, राष्ट्र एवं विश्व में भी अग्रिम स्थान मिलता है। संक्षेप में विद्यारम्भ - संस्कार द्वारा बालक-बालिका में उन महत्वपूर्ण गुणों की स्थापना का प्रयास किया जाता है, जिनके आधार पर उसकी शिक्षा मात्र अक्षरज्ञान न रहकर जीवन - निर्माण करने वाली हितकारी विद्या के रूप में विकसित हो सके ।
आदिपुराण, जिनसेनाचार्यकृत, अनुवादक सातवाँ संस्करण : २०००
आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत ( प्रथम विभाग), उदय-तेरहवाँ, पृ. ३१, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, सन्
१६२२.
३६७
३६८
Jain Education International
-
डॉ. पन्नालाल जैन, पर्व - अड़तीसवाँ, पृ. २५०, भारतीय ज्ञानपीठ,
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org