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साध्वी मोक्षरत्ना श्री
ज्योतिषी को बुलाकर विवाह - लग्न की पूजा करें तथा ज्योतिष को दान-दक्षिणा दें। तत्पश्चात् मिट्टी के करवे में जौ बोएं, फिर कन्या के घर में मातृ - स्थापना एवं षष्ठीमाता की स्थापना करें तथा वर के घर में जिनमतानुसार कुलदेवी एवं कुलकरों की स्थापना करें। इसके बाद मूलग्रन्थ में कुलकर - स्थापना की विधि बताई गई है। तत्पश्चात् वर के घर में शान्तिक- पौष्टिककर्म तथा कन्या के घर में माता की पूजा करें। तदनन्तर विवाह से सात, नौ, ग्यारह या तेरह दिन पहले से ही प्रतिदिन वर और वधू को मंगलगीत गानपूर्वक तेल का मर्दन करके स्नान कराएं। वर एवं वधू के घर में वर-वधू के परिजन किस प्रकार से वस्तुओं का आदान-प्रदान करें इसका उल्लेख करते हुए मूलग्रन्थ में देश एवं कुलाचार के अनुरूप धूलिपूजा, चाकपूजा आदि करने का निर्देश दिया गया है, तत्पश्चात् बारात - प्रस्थान की विधि का उल्लेख किया गया है। विवाह का दिन आने पर विवाहलग्न से पूर्व नगरवासी या अन्य देश से आया हुआ वर विधिपूर्वक विवाह हेतु निकले। उसकी बहन लवण आदि उतारने का कार्य करे। तत्पश्चात् गृहस्थ गुरु बारातसहित कन्या के गृहद्वार पर जाए। वहाँ वर की सास एवं वर के ससुर तथा कन्यापक्ष की अन्य स्त्रियाँ विवाह सम्बन्धी औपचारिकताओं को पूर्ण करें। तदनन्तर मूलग्रन्थ में मंत्रपूर्वक हस्तबन्धन, वेदीरचना एवं उसकी प्रतिष्ठा, तोरणप्रतिष्ठा तथा अग्निस्थापना की विधि बताई गई है । तत्पश्चात् देश एवं कुलाचार के अनुसार आयुध लेकर चलना, कण्ठ में आयुध धारण करना आदि रीति-रिवाज किए जाते हैं। हस्तमिलाप किए हुए वर और वधू को वेदी के पास लाएं। तत्पश्चात् गृहस्थ गुरु किस प्रकार से अग्नि को प्रज्वलित करे, सब लोगों के समक्ष किस प्रकार से वर-वधू के वंश का प्रकाशन किया जाए, वर एवं वधू ि प्रकार से अग्नि की पूजा करें तथा गृहस्थ गुरु किस प्रकार से वर एवं वधू को सात फेरे दिलवाए, कन्या के स्वजन एवं सम्बन्धी किस प्रकार से उपहार दें एवं कन्या का पिता किस प्रकार से वर को कन्या प्रदान करे इन सबका मूलग्रन्थ में विस्तृत विवेचन किया गया है। तत्पश्चात् गृहस्थ गुरु अपने कथन से विवाह सम्बन्ध की पुष्टि करता है तथा वर-वधू को हितशिक्षा देता है । तदनन्तर वर-वधू का विधिपूर्वक करमोचन किया जाता है। तत्पश्चात् वर पुनः स्वगृह की तरफ प्रस्थान करता है । वर-वधू के गृहप्रवेश के समय उसके माता-पिता आदि अनेक औपचारिकताएँ करते हैं। तत्पश्चात् सात रात्रियों के पश्चात्, या एक मास के पश्चात् कन्यापक्ष वाले मातृकाविसर्जन करें तथा वरपक्ष वाले कुलकरों का विसर्जन करें - इसका उल्लेख करते हुए मूलग्रन्थ में कुलकरों के विसर्जन की विधि बताई गई है। कुलकरों का विसर्जन करने के बाद वर-वधू द्वारा मण्डलीपूजा, गुरुपूजा, वासक्षेप ग्रहण करना आदि कार्य किए जाते हैं तथा साधुओं को वस्त्र आदि का
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