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साध्वी मोक्षरत्ना श्री
क्रियाओं का अधिकारी नहीं माना जाता है:०९, अतः इस अधिकार को प्राप्त करने के उद्देश्य को लेकर भी यह संस्कार किया जाता है। दूसरा, वंश-परम्परा को अक्षुण्ण रखने के लिए यह संस्कार आवश्यक है। स्वच्छंद यौनसम्बन्धों में वंश या कुल-परम्परा संभव नहीं है, वस्तुतः इसका मूलभूत प्रयोजन समाज में पारस्परिक यौनसम्बन्धों की समुचित व्यवस्था को स्थापित करना ही है, ताकि सन्तान के पालन-पोषण आदि के दायित्वों का सम्यक् निर्धारण हो सके।
जैन-परम्परा एवं वैदिक-परम्परा - दोनों में इस संस्कार को स्वीकार किया गया है। वर्धमानसूरि के अनुसार कन्या का विवाह आठ वर्ष बाद कर देना चाहिए, किन्तु पुरुष का विवाह आठ वर्ष से लेकर अस्सी वर्ष के बीच में हो सकता है।०१ ज्ञातव्य है कि वर्धमानसूरि का दृष्टिकोण बाल-विवाह और वृद्ध-विवाह का समर्थन करता प्रतीत होता है, किन्तु उनके काल में मुस्लिमों के आतंक के कारण यह एक विवशता में किया गया सामाजिक निर्णय था। दिगम्बर-परम्परा में यशस्तिलकचम्पू के अनुसार १२ वर्ष की कन्या एवं १६ वर्ष का किशोर विवाह के योग्य माने गए हैं।०२ वैदिक-परम्परा में भी पुरुष के विवाह के लिए कोई निश्चित अवधि नहीं रखी गई है।०३, परन्तु कन्या के विवाह के लिए अवधि का निर्धारण किया गया है। गृह्यसूत्रों एवं धर्मसूत्रों के अनुसार सामान्यतः लड़कियों को युवावस्था के बिल्कुल पास पहुँच जाने पर, या उसके प्रारम्भ होने पर ही विवाह के योग्य माना जाता था। ०४ संस्कार का कर्ता -
वर्धमानसूरि के अनुसार यह संस्कार जैन ब्राह्मण या क्षुल्लक द्वारा करवाया जाता है। दिगम्बर-परम्परा के अनुसार भी यह संस्कार आदिपुराण में निर्दिष्ट योग्यता को धारण करने वाले द्विजों या पण्डितों द्वारा करवाया जाता है। वैदिक-परम्परा में यह संस्कार सामान्यतः ब्राह्मण द्वारा करवाया जाता है।
४०० हिन्दूसंस्कार, डॉ. राजबली पाण्डेय, अध्याय-अष्टम, पृ.-१६५, चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी, पांचवाँ संस्करण
: १६६५ १०१ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत (प्रथम विभाग), उदय-चौदहवाँ, पृ.-३१, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे सन्
१६२२ ४०२ देखे - हरिवंशपुराण : एक सांस्कृतिक अध्ययन, राममूर्ति चौधरी, अध्याय-२, पृ.-४४, सुलभ प्रकाशन,
लखनऊ, प्रथम संस्करण : १६८६ ४०३ धर्मशास्त्र का इतिहास (प्रथम भाग), पांडुरंग वामन काणे, अध्याय-६, पृ.-२७२, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान,
लखनऊ, तृतीय संस्करण : १९८० 'धर्मशास्त्र का इतिहास (प्रथम भाग), पांडुरंग वामन काणे, अध्याय-६, पृ.-२७३, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ, तृतीय संस्करण : १९८०
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