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उपनयन संस्कार की विधि -
उपनयन संस्कार मनुष्यों को वर्ण विशेष में प्रवेश करने हेतु तदनुरूप वेश एवं मुद्रा धारण करने के लिए तथा अपने-अपने गुरु द्वारा उपदिष्ट धर्म-मार्ग में प्रवेश करने के निमित्त किया जाता है । तदनन्तर मूल ग्रन्थ में उपनयन के महत्व को समझाया गया है तथा कौन-कौन से कुल तथा वर्ण के लोग किस प्रकार के वेश एवं उपवीत को धारण करने के योग्य होते हैं, इसका उल्लेख किया गया है। तत्पश्चात् यह बताया गया है कि निर्ग्रन्थ यतियों को उपवीत धारण करना आवश्यक नहीं है, क्योंकि वे तत्स्वरूप होते हैं। तदनन्तर किस-किसको किस कारण से कितने सूत्र के उपवीत को धारण करना चाहिए, इसका उल्लेख करते हुए यह भी बताया गया है कि शूद्र को जिनाज्ञाभूत उत्तरीय वस्त्र तथा वणिक आदि को देव, गुरु, धर्म की उपासना के समय जिनाज्ञारूप उत्तरासंगमुद्रा धारण करने की अनुज्ञा है । तत्पश्चात् जिनउपवीत के स्वरूप को स्पष्ट किया गया है।
साध्वी मोक्षरत्ना श्री
उपनयन-विधि का उल्लेख करते हुए वर्धमानसूरि ने इस संस्कार हेतु शुभलग्न आदि की विस्तृत चर्चा करते हुए उपनयन संस्कार हेतु उपयुक्त आयु का उल्लेख किया है। उपनयन संस्कार हेतु उपनयन के योग्य पुरुष को नौ, सात, पाँच या तीन दिन तक तेल का मर्दन करके स्नान करवाए। तत्पश्चात् लग्नदिन में गृहस्थ गुरु उसके घर में ब्रह्ममुहूर्त में पौष्टिककर्म करें। फिर चोटी को छोड़कर उसके शेष बालों का मुण्डन कराए तथा वेदी पर समवसरण के सदृश चतुर्मुख जिनबिम्ब की स्थापना करे। तत्पश्चात् जिनबिम्ब की पूजा करके गृहस्थ गुरु उपनेय पुरुष से तीन प्रदक्षिणा करवाए तथा चारों दिशाओं में अर्हतस्तोत्रयुक्त शक्रस्तव का पाठ करे । उस समय मंगल गीत गाए जाएं तथा चतुर्विध संघ को आमंत्रित करें। तत्पश्चात् आर्य वेदमंत्र, अर्थात् जैन - मंत्रपूर्वक उपनयन - विधि का आरंभ करके पुनः चारों दिशाओं में स्थित हो आदिनाथ भगवान् के स्तव सहित शक्रस्तव का पाठ करें। उस दिन उपनेय पुरुष आयम्बिल करे । तत्पश्चात् गुरु अभिमंत्रित चंदन से हृदय, कटि एवं ललाट पर रेखा अंकित करे । तदनन्तर शिष्य किस प्रकार से गुरु को निवेदन करता है, गुरु किस प्रकार से गुंजमेखला, लंगोटी एवं जिनउपवीत को अभिमंत्रित करके धारण करवाए इसका भी मूलग्रन्थ में उल्लेख हुआ है। तदनन्तर गृहस्थ गुरु उपनेय पुरुष को महाप्रभावशाली पंचपरमेष्ठीमंत्र दाएँ कर्ण में तीन बार सुनाए । तत्पश्चात् इस मंत्र की महिमा बताते हुए अपवित्र, शठ आदि को यह मंत्र देने का निषेध करे। तत्पश्चात् उपनेय पुरुष गृहस्थ गुरु को दान-दक्षिणा दे । तत्पश्चात् उपनेय पुरुष की व्रतादेशविधि का विस्तार से उल्लेख किया गया है। इसी प्रकरण में चारों वर्णों के लिए सामान्य एवं विशेष व्रतादेशों का भी उल्लेख हुआ है। तत्पश्चात् उपनेय पुरुष की व्रत - विसर्जन
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