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साध्वी मोक्षरत्ना श्री
वर्धमानसूरि ने कुछ ऐसी क्रियाओं का भी उल्लेख किया है, जो वैदिक-परम्परा में भी की जाती हैं, जैसे - कृष्ण मृगचर्म या वृक्ष की छाल धारण करवाना, पलाश का दण्ड देना, चारों वर्गों के भिन्न-भिन्न व्रतादेश, गोदान, ब्रह्मचारी बनाने की विधि आदि।
किसी कारण से यदि पुनः उपवीत को धारण करना पड़े, तो उसकी विधि का भी वर्धमानसूरि ने आचारदिनकर में उल्लेख किया है। शूद्र को उत्तरीयवस्त्र किस प्रकार दें, अर्थात् धारण कराएं, इसकी विधि का भी वर्णन वर्धमानसूरि ने आचारदिनकर में किया है। वैदिक-परम्परा में भी नवीन यज्ञोपवीत धारण करने की विधि का उल्लेख मिलता है।२७६
यदि हम संक्षेप में कहें, तो उपनयन नामक संस्कार की क्रियाविधि तीनों ही परम्पराओं में आंशिक समानता एवं आंशिक भिन्नता है। फिर भी आचार्य वर्धमानसूरि एवं वैदिक-परम्परा के विद्वानों ने जितने विस्तार से इस क्रियाविधि का विवेचन किया है, उतना विस्तृत विवेचन दिगम्बर-परम्परा के ग्रन्थों में नहीं मिलता
अन्य संस्कारों की भाँति ही वर्धमानसूरि ने इस संस्कार हेतु आवश्यक सामग्री का भी निर्देश दिया है। इस प्रकार का निर्देश दिगम्बर एवं वैदिक-ग्रन्थों में नहीं मिलता है। उपसंहार -
इस प्रकार तुलनात्मक अध्ययन के पश्चात् हम पाते हैं कि यह संस्कार वास्तव में अत्यन्त महत्वपूर्ण है, क्योंकि इस संस्कार के माध्यम से ही बालक का अध्ययन प्रारंभ होता है। सामान्यतया वैदिक-परम्परा में यह धारणा थी कि व्यक्ति जन्म से शूद्र होता है, संस्कार से द्विज बनता है और उसके पश्चात् ही उसे किसी भी धार्मिक अनुष्ठान आदि करने, कराने की अनुमति मिलती है। यज्ञोपवीत प्रकारान्तर से जिनउपवीत को धारण करने वाला उपनयन-संस्कार से संस्कारित व्यक्ति ही द्विज कहा जाता है।
वैदिक-परम्परा में भी इस सम्बन्ध में विस्तृत विवेचन मिलता है, जैसे - जो यज्ञोपवीत को धारण नहीं करता है, उसका यज्ञ सफल नहीं होता है। इसी प्रकार दैनिक क्रियाओं जैसे भोजन आदि करते समय यज्ञोपवीत को धारण करना आवश्यक माना जाता है तथा उसको धारण नहीं करने पर प्रायश्चित्त आता
३७६ देखे - धर्मशास्त्र का इतिहास (भाग-प्रथम), पांडुरंग वामन काणे, अध्याय-७, पृ.-२२१, उत्तरप्रदेश, हिन्दी
संस्थान, लखनऊ, तृतीय संस्करण : १९८०
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