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वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
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है। इस प्रकार वैदिक परम्परा में भी यज्ञोपवीत को धारण करना आवश्यक
माना गया है।
वैदिक - परम्परा के ग्रन्थों में ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि प्राचीन समय में यज्ञोपवीत के रूप में कृष्णमृगचर्म या उसके अभाव में रूई का वस्त्र तथा वस्त्र के अभाव में त्रिसूत्र धारण किया जाता था ।
दिगम्बर- परम्परा में इस संस्कार की महत्ता को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि३०२ यज्ञोपवीत को धारण किए बिना उसे श्रावकधर्म के पालन का तथा मुनिदान का अधिकारी नहीं माना जाता है। इस प्रकार दिगम्बर - परम्परा में भी उपनयन संस्कार को आवश्यक माना गया है।
वर्धमानसूरि ने भी वर्ण- क्रम में प्रवेश करने और उस अनुरूप वेश एवं मुद्रा धारण करने के लिए तथा जिनधर्म में प्रवेश करने के लिए यह संस्कार अनिवार्य बताया है। वर्तमान में भी हम देखते हैं कि धार्मिक अनुष्ठान के समय, मन्दिर में प्रवेश करते समय श्रावक को उत्तरासंग धारण करने का विधान है। वर्तमान में दिगम्बर - परम्परा में उपवीत धारण करने की परम्परा जीवित है, जबकि श्वेताम्बर - परम्परा में इसका प्रायः अभाव ही है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य हैं कि जिनउपवीत की यह चर्चा वर्धमानसूरि के अतिरिक्त किसी अन्य श्वेताम्बर आचार्य ने की हो यह हमारी जानकारी में नहीं है।
विद्यारंभ - संस्कार
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विद्यारंभ संस्कार का स्वरूप
जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है, यह संस्कार बालक को विधिपूर्वक विद्याध्ययन का आरंभ करवाने हेतु किया जाता है। जब बालक का मन-मस्तिष्क शिक्षा ग्रहण करने के योग्य हो जाता है, तब उसकी शिक्षा का आरंभ इस संस्कार द्वारा किया जाता है। प्रारम्भ में उसे अक्षरज्ञान करवाया जाता है और बाद में शास्त्रों का अध्ययन करवाया जाता है। तीनों परम्पराओं में इस संस्कार का उल्लेख हुआ है, परन्तु इसके नाम की भिन्नता के साथ ही अध्ययन के विषय के सम्बन्ध में भी भिन्नता है। श्वेताम्बर एवं वैदिक परम्परा ने इसे विद्यारंभ के नाम
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३८० देखे
धर्मशास्त्र का इतिहास (भाग-प्रथम), पांडुरंग वामन काणे, अध्याय ७, पृ. २१७, उत्तरप्रदेश, हिन्दी संस्थान, लखनऊ, तृतीय संस्करण : १६८०
३८१ देखे धर्मशास्त्र का इतिहास (भाग-प्रथम), पांडुरंग वामन काणे, अध्याय ७, पृ. २१७, उत्तरप्रदेश, हिन्दी संस्थान, लखनऊ, तृतीय संस्करण : १६८०
श्रावकाचार संग्रह, स्व. पं. हीरालाल शास्त्री ( भाग-४), पृ. १६१, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर, द्वितीय संस्करण, ई.स. १६६८
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