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साध्वी मोक्षरत्ना श्री
से विवेचित किया है, तो दिगम्बर- परम्परा ने इसे लिपिसंख्यान- क्रिया के रूप में विवेचित किया है। इस प्रकार संस्कार के नाम आदि में आंशिक भिन्नता है, जिसे हम यथास्थान विवेचित करेंगे। विद्यारंभ संस्कार उपनयन संस्कार की अपेक्षा परवर्ती संस्कार है। यही कारण है, कि वैदिक परम्परा के गृह्यसूत्रों एवं धर्मसूत्रों में इसका विवेचन नहीं मिलता है। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि प्राचीनकाल में उपनयन संस्कार के साथ ही मौखिक अध्ययन प्रारम्भ हो जाता था। उस समय लिपि का विकास नहीं हुआ था, अतः इस संस्कार की कोई अलग से आवश्यकता अनुभव नहीं की गई होगी।
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इस संस्कार को किए जाने का प्रयोजन बालक को लिखना एवं पढ़ना सिखाना था, क्योंकि वर्णमाला के, या स्वर और व्यंजन के ज्ञान के अभाव में, बालक के सामने पुस्तक हो, तो भी नहीं पढ़ सकता; अतः बालक को अक्षरबोध कराना अत्यन्त अनिवार्य था। इस संस्कार के दो चरण हैं। पहले चरण में बालक को स्वर-व्यंजन का ज्ञान करवाया जाता है तथा दूसरे चरण में आगम आदि ग्रन्थों का अध्ययन करवाया जाता है। बालक के विकास में शिक्षा का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान होता है। इस उद्देश्य से यह संस्कार किया जाता है ।
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वर्धमानसूरि के अनुसार यह संस्कार भी उपनयन के समान ही शुभदिन और शुभलग्न में करना चाहिए । इसके निश्चित समय का निर्देश आचारदिनकर में नहीं मिलता है, किन्तु दिगम्बर - परम्परा के अनुसार लिपिसंख्यान नामक यह क्रिया पाँचवें वर्ष में की जाती है३८४ ऐसा उल्लेख मिलता है। वैदिक - परम्परा में भी यह संस्कार दिगम्बर- परम्परा की भाँति ही सामान्यतः पांचवें वर्ष में ही करने का विधान है। विद्यारम्भ नामक यह संस्कार गृह्यसूत्रों में वर्णित नहीं है, परन्तु कालान्तर में रचित कुछ स्मृतियों एवं पुराणों में ही उल्लेखित है। ३८६
३८५
३८.३ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत ( प्रथम विभाग), उदय-तेरहवाँ, पृ. ३०, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, सन्
१६२२
३८४ आदिपुराण, जिनसेनाचार्यकृत, अनुवादक डॉ. पन्नालाल जैन, पर्व- अड़तीसवाँ, पृ. २४८, भारतीय ज्ञानपीठ, सातवाँ संस्करण : २०००
३८५ देखे - धर्मशास्त्र का इतिहास (भाग-प्रथम), पांडुरंग वामन काणे, अध्याय-६, पृ. २०६, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ, तृतीय संस्करण : १६८०
३८६ देखे
धर्मशास्त्र का इतिहास (भाग-प्रथम), पांडुरंग वामन काणे, अध्याय - ६, पृ. २०६, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ, तृतीय संस्करण : १६८०
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