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साध्वी मोक्षरला श्री आदि में इसे संस्कार के रूप में नहीं स्वीकार किया गया है। यद्यपि शिशु के जन्म सम्बन्धी सूतक के निवारण के सम्बन्ध में इतना अवश्य कहा गया है -
"ब्राह्मणों को दसवें दिन, क्षत्रियों को बारहवें दिन, वैश्यों को सोलहवें दिन एवं शूद्रों को एक महीने में सूतक का निवारण करना चाहिए। कारू, अर्थात् शिल्पियों को सूतक नहीं होता है।"२७
श्वेताम्बर-परम्परा में यह संस्कार जैन-ब्राह्मण या क्षुल्लक द्वारा करवाने का निर्देश दिया गया है। आचारदिनकर के अनुसार इस संस्कार में जन्म-संस्कार, सूर्य-चन्द्रदर्शन- संस्कार, क्षीराशन एवं षष्ठी-संस्कार कराने वाले गृहस्थ-गुरु को भी इसी संस्कार के दिन दान देना चाहिए, क्योंकि इससे पूर्व सूतक होने के कारण उनको दान देना एवं लेना विहित नहीं है।
वर्धमानसूरि ने आचारदिनकर में इस संस्कार की निम्न विधि प्रस्तुत की
शुचिकर्म-संस्कार की विधि -
वर्धमानसूरि के अनुसार अपने-अपने वर्ण के अनुसार निर्धारित दिनों के व्यतीत होने पर शुचिकर्म-संस्कार करना चाहिए। कौनसे वर्ण में कितने दिन बाद सूतक का निवारण करना चाहिए- इसका भी मूल ग्रन्थ में उल्लेख किया गया है।
शुचिकर्म-संस्कार हेतु गृहस्थ-गुरु सर्वप्रथम आमंत्रित सभी गोत्रीजनों को पूर्णस्नान एवं वस्त्र-प्रक्षालन हेतु कहे। तदनन्तर शुद्ध वस्त्रों को धारण करके गृहस्थ-गुरु की साक्षी में परमात्मा की विविध प्रकार से पूजा-अर्चना करे। तत्पश्चात् शिशु के माता-पिता पंचगव्य से कुल्ला एवं स्नान करके शिशुसहित अपने नाखून काटे। तदनन्तर ग्रन्थि से बंधे हुए दंपत्ति जिनप्रतिमा को नमस्कार करें। सधवा स्त्रियाँ मंगलगीत गाते हुए एवं वाद्य बजाते हुए सभी मंदिरों में पूजा करें एवं नैवेद्य चढाएं। साधु को यथाशक्ति अन्न, वस्त्र, आदि का दान दें तथा विधिकारक-गुरु को भी ताम्बूल, मुद्रा, आभूषण, आदि का दान दें।
इसी दिन जन्म-संस्कार, चंद्र-सूर्यदर्शन, क्षीराशन-संस्कार एवं षष्ठी-संस्कार करवाने वाले गुरु को भी दान दें तथा यथाशक्ति स्वजन, गोत्रजन, आदि को भोजन, आदि करवाएं। तदनन्तर गुरु उनके कुलाचार के अनुसार शिशु को पंचगव्य, जिनस्नात्र-जल, सर्वोषधि-जल एवं तीर्थजल से स्नान करवाकर वस्त्र,
२७' आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत (प्रथम विभाग), उदय-सातवाँ, पृ.-१४, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, सन्
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