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साध्वी मोक्षक श्री मिलता है। साथ ही उसमें ऋषियों की पूजा का भी निर्देश मिलता है। हरिवंशपुराण में भी इस संस्कार की चर्चा मिलती है।
वैदिक-परम्परा में इसकी विधि बहुत लम्बी बताई गई है। उसमें नाम चयन करने सम्बन्धी बहुत अधिक निर्देश मिलते हैं, जैसे - जो नाम नहीं रखना चाहिए, या जो नाम रखना चाहिए, आदि के उल्लेख भी हैं। उसमें नामकरण की विधि मात्र इतनी ही है कि शिशु के दाहिने कान की ओर झुकता हुआ पिता उसे इस प्रकार सम्बोधित करता है - "हे शिशु! तू कुलदेवता का भक्त है, तेरा अमुक नाम है, तू इस मास में उत्पन्न हुआ है, अतः तेरा अमुक नाम है, तू इस नक्षत्र में जन्मा है, अतः तेरा अमुक नाम है तथा यह तेरा लौकिक-नाम है।" इतना कहने के पश्चात् ब्राह्मण “यह नाम प्रतिष्ठित हो"- ऐसा कहकर उसका नामकरण करते हैं।
श्वेताम्बर-परम्परा में ज्योतिष एवं विधिकारक को यथोचित दान देने का निर्देश दिया गया है। दिगम्बर-परम्परा एवं वैदिक-परम्परा में भी द्विजों को दान देने का निर्देश दिया गया है। ज्योतिषी को अलग से दान देने के सम्बन्ध में वहाँ कोई उल्लेख नहीं मिलता है, क्योंकि वे द्विजों के अन्तर्भूत ही माने गए हैं, यद्यपि व्यवहार में उन्हें भी दक्षिणा दी जाती है।
___ आचारदिनकर में वर्धमानसूरि ने जिस प्रकार इस संस्कार के लिए आवश्यक वस्तुओं का निर्देश दिया है, इस प्रकार का निर्देश दिगम्बर एवं वैदिक-परम्परा के प्राचीन ग्रन्थों में नहीं मिलता है, किन्तु पं. नाथूलालजी शास्त्री आदि परवर्ती विद्वानों के ग्रन्थों में ऐसे उल्लेख देखने को मिल जाते हैं। उपसंहार -
इस तुलनात्मक-विवेचन के पश्चात् जब हम इस संस्कार की उपादेयता का आंकलन करते हैं, तो यह पाते हैं कि यह संस्कार भी शिशु के जीवन का एक महत्वपूर्ण पक्ष है, जिसे किसी भी स्तर पर नकारा नहीं जा सकता। इस संस्कार को करने का मुख्य प्रयोजन शिशु का विशिष्ट नाम स्थापित करने से है, जिससे वह अपनी पहचान बनाकर अपने जीवन के हर व्यवहारिक कार्य को उस नाम से कर सके। हर माता-पिता की यह इच्छा होती है कि मेरा पुत्र अपने नाम से सफलता के सोपान प्राप्त करे।
२८७ हिन्दू संस्कार, डॉ. राजबली पाण्डेय, अध्याय-षष्ठ (द्वितीय परिच्छेद), पृ.-१०६, चौखम्मा विद्याभवन,
वाराणसी, पांचवाँ संस्करण - १६६५.
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